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भयावह सन्नाटे के बीच जागता मुस्काता है एक दीप वंदन-अभिनन्दन प्रो० संजीव प्रचंडिया 'सोमेन्द्र'
घोर कलुषित झंझावात और सन्नाटा चारों ओर निपट काली निशा प्राची के हिस्से में फैली कोई घाटी घिसी-पिटी आदतों की परिपाटी साँय-सांय करते हुए कालजयी घेरे बोझिल-सी सांसें जैसे मानव-कंकाल के चिह्न तराशता-तलाशता-सा "समय" भटक गया हो। कोई गतिहीन निराश्रित पहिया अपने जिस्म के हिस्से से कटकर कहीं ठहर गया हो। तभी कहीं "मैं" की बूझती-सी एक अद्भुत दिव्य ज्योति फैल जाती है उस संदिग्ध घाटी के रन्ध्र-रन्ध्र में और मेट-समेट देती है समूची सड़ांध भरी काली कलुषित निशा को और प्यास का विकल्प जैसे छंट कर तिर जाता है। मेरा विश्वास मेरी आत्मा पर बोझ नहीं है
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
प्रथम खण्ड/३९
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