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आई घड़ी अभिनंदन की | चरण कमल के वंदन की
अज्ञता की पर्तों को मैंने " मानक" नहीं दिया है और पहिचाना है अपने को 1 अपनों से मिलकर
अपनों में जिया है ।
अर्ध शतदलों के मध्य
मैंने अपने को तराशा है / तलाशा है ।
साधनाओं के कठोर कड़वे पथ पर आत्मोत्कर्ष के शिखर पर
सीढ़ी-दर-सीढ़ी
ज्यों-ज्यों चढ़ना हुआ
त्यों-त्यों घाटियाँ भी सिमट कर समतल में तबदील हो गयीं ।
नम्रता और उदारता
उत्साह का घना घेरा सभी कुछ
जैसे उनके भीतर के
गहरे सागर में समा गया हो । ऐसी महामूर्ति,
योगानुभूति,
त्यागमयी,
महासती,
उमराव कुंवरजी, "अर्चना" जी को
निवेदित है
शत-शत वन्दन !
अभिनन्दन ! !
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अर्चनार्चन / ४०
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