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________________ पंचम खण्ड / २३८ स्वामी सत्यानन्द सरस्वतीजी लिखते हैं कि "नारी के समक्ष प्राज नये रूप से उत्तरदायित्व मा गया है। उन्हें योग की शिक्षा घर पर ही दी जानी चाहिये और यह कार्य घर में नारी ही सही रूप में कर सकती है, इसके लिये घर में योग से सम्बन्धित साहित्य रखना चाहिये।" योग व संस्कार ही वह साधन है जिससे बालक अपने जीवन का विकास नियमित रूप में कर पाता है। योग से एक सहज व सौम्य वातावरण बालक को मिलता है। __ योग और संस्कार की शिक्षा न देने पर मां अपने बालकों को भावनात्मक रूप में व शारीरिक रूप में अस्वस्थ रखती है। आज समाज में अनुशासनहीनता यदि दिखाई देती है तो उसका कारण है योग-शिक्षा का प्रभाव । बालकों में अनेक बीमारियाँ हो जाती हैं जैसे डायबिटीज, अपस्मार व अन्य अनेक मानसिक व्याधियाँ। प्रासन शरीर की कुछ विशिष्ट स्थितियां हैं जिनके करने पर बालक तनावों, रोगों व कंठानों से मुक्त रहता है । इस प्रकार एक योगशिक्षित मां अपने बच्चों के जीवन को प्रशिक्षित कर सकती है। योग का अर्थ है "मन का एकीकरण", मन के विभिन्न कार्यकलापों को एक स्थान में नियंत्रित करना । तब ऐसा 'मन' शरीर, व्यक्ति, समाज परिस्थिति में एक समूह का काम कर सकता है और उस अलौकिक चेतना का अनुभव कर सकता है जिसे ईश्वर कहते हैं। व्यक्ति मात्र का सुन्दर स्वास्थ्यप्राप्ति की क्षमता को उत्पन्न करना ही योग है। स्वयं को जानने का अगर कोई साधन है तो वह है योग । योग द्वारा हम अपने आपको अच्छी तरह से जान सकते हैं । योग, ध्यान, आसन, प्राणायाम सभी आत्म-विश्लेषण के माध्यम हैं। स्थिरता को लाने के लिये मन को स्थिर करना होगा। मन में बेचैनी, मानसिक प्रशांति, दूसरों को अपने से भिन्न व हेय समझना आज प्राधुनिक युग की समस्याओं का मूल कारण है। प्रत्येक व्यक्ति में स्पर्धा की भावना है जिसके वशीभूत होकर वह दूसरे को नीचे गिराना चाहता है । अध्यात्म की कमी ने ऐश्वर्य और भौतिकता को प्रश्रय दे रखा है। बालकों में भी इन वस्तुओं को प्राप्त करने की भावना दिनोंदिन बढ़ती जा रही है जिस पर नियंत्रण प्रावश्यक है, वह योग-शिक्षा द्वारा संभव है और नारी इस कार्य को सम्पन्न कर सकती है। बच्चों के निर्माणात्मक काल में उनके शारीरिक और मानसिक क्रिया-कलापों में संतुलन होना बहुत आवश्यक है। माता-पिता बच्चों को तब तक दिशा प्रदान कर शिक्षित नहीं कर सकते जब तक कि ये स्वयं ही कुण्ठानों से ऊपर न उठे। पारिवारिक शिक्षा के रूप में माता व शिक्षक-शिक्षिका बालक को योग की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दें। योग के अभ्यासी बच्चे अपनी मदद स्वयं करने में समर्थ हो जाते हैं। शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक जीवन को स्वनियंत्रित करने में समर्थ हो जाते हैं। प्राज पश्चिम में योगाभ्यास अनिवार्य अंग होता जा रहा है, इससे परिवार के वातावरण में सुधार भी पाता है तथा बच्चों में एकाग्रता व स्मरणशक्ति बढ़ जाती है। वे शरीरश्रम की महत्ता जान जाते हैं। इसके अतिरिक्त निरोग रहते हैं व उन पर रोग का आक्रमण नहीं हो पाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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