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________________ जयपरम्परा के पांच पुरुष / १३ तिवरी का जैनसमाज अधिकतर स्थानकवासी आम्नाय में आस्था रखता परम्परा का यहाँ प्रभाव था । कभीस्वामी श्री जोरावरमल जी म. का था । पूज्य आचार्यश्री जयमल्ल जी म. की कभी स्वामी श्री शोभाचन्द्रजी म एवं श्रागमन तिवरी में होता रहता था । बालक मिश्रीमल में बचपन से ही धर्मगुरुत्रों के प्रति श्रद्धा और प्रेम का आकर्षण था । जब कभी स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. तिवरी पधारते तो उनके साथ स्वामी श्री हजारीमलजी म. भी होते । बालक मिश्रीमल श्री हजारीमलजी म. के पास बड़े चाव से बैठता, उनके मुंह से मीठी कहानियाँ और मधुर भजन सुनता। कहानी और संगीत के प्राकर्षण ने उनको इतना अभिभूत कर लिया कि माँ तुलसीबाई मिश्रीमल को बुलाती रहती, पर वह स्वामी श्री हजारीमलजी म. का पल्ला पकड़े बैठा ही रहता । उसे घर से स्थानक अच्छा लगता, माँ से अधिक गुरुजी का स्नेह उसे खींचता रहता । ऐसे ही एक बार स्वामीजी श्री जोरावरमलजी म. स्थानक में व्याख्यान फरमा रहे थे । स्थानक के बाहर कुछ बालक खेल रहे थे। मिश्रीमल उस समय छह सात वर्ष की आयु का होगा । वह उन बालकों का नेता बन गया और बालकों से 'कहा कि श्रन्दर महाराज बखाण दे रहे हैं, बाहर मैं तुम्हें बखाण सुनाता हूँ । और इस प्रकार उनका खेल भी मुनि जीवन से जुड़ गया । माँ के माध्यम से बात गुरुजी तक पहुँची । उन्होंने अपनी अनुभवी और पारदर्शी आँखों से बालक में भावी संस्कारों की प्रतिच्छवि देखी और मुस्करा कर रह गए । बालक मिश्रीमल के संस्कार धीरे-धीरे दीक्षा लेने की तैयारी में रंग गये । माता-पिता ने बहुत ही समझाया किन्तु कोई प्रभाव नहीं पड़ा। दीक्षा में बाधायें भी आईं किन्तु अंततः वैशाख शुक्ला दशमी वि. सं. १९८० दिनांक १६ अप्रेल १९२३ के शुभ दिन स्वामीजी श्री जोरावरमल जी म. सा. के हाथों आपने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। आपको दीक्षा भिणाय गांव में सम्पन्न हुई थी । दीक्षा के बाद मुनिश्री मिश्रीमलजी अध्ययन की दिशा में दत्तचित्त होकर बढ़ने लगे । संस्कृत-प्राकृत के अनेक विद्वानों को मुनिश्री के ग्रध्यापन के लिए बुलाया गया । उनकी देखरेख में बाल मुनि श्री मिश्रीमल जी का अध्ययन गतिमान हुआ । संस्कृत व्याकरण, कोश आदि के साथ ही प्राकृत व्याकरण, जैनश्रागम, उनकी टीकाएँ, न्यायदर्शन आदि का प्रौढ़ ज्ञान भी मुनिश्री प्राप्त करने लगे । अनेक मैथिल विद्वान् ( व्याकरण व नव्य न्याय के लिए) तथा प्रसिद्ध विद्वान पं बेवरदासजी, दोशी, डॉ. इन्द्रचन्द्रजी शास्त्री, पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल आदि की देखरेख में लगभग दस-बारह वर्ष की अवधि तक मुनिश्री ने कठोर परिश्रम, दृढ़ अध्यवसाय और एकाग्रचित्त के साथ ज्ञानार्जन किया । इस एकनिष्ठ ज्ञानोपासना के कारण मुनिश्री ने अध्ययन, भाषण और लेखन तीनों विषयों में प्रौढ़ता प्राप्त कर ली । व्याकरण आदि के बुनियादी ज्ञान के साथ ही अपने सर्वसामान्य लोकज्ञान, लोक-साहित्य, प्रवचन - साहित्य तथा विविध विषयों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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