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________________ ध्येय-प्राप्ति का हेतु 'भावना' | २५५ तालीम का शोर इतना, तहजीब का गुल इतना। बरकत जो नहीं होती नीयत की खराबी है ॥ जो आस्रव-कर्मप्रवेश के हेतु हैं, वे भावना की पवित्रता से परिश्रव-कर्म रोकने वाले हो जाते हैं और जो परिस्रव हैं, वे भावना की अपवित्रता से प्रास्रव हो जाते हैं-यथा जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा। (पाचारांग ४।२) दो किसान बाजरी बोने के लिए खेत जा रहे थे। रास्ते में साधु मिले। पहला उन्हें देखकर खुश हुआ एवं सोचने लगा कि नंगे सिर साधु मिले हैं अतएव इनके सिर जितने बड़े-बड़े सिट्टे होंगे । शकुन बहुत अच्छे हुए हैं। दूसरा साधु को देखकर अपशकुन की कल्पना करने लगा कि इनके सिर पर पगड़ी नहीं है, इसलिए केवल कड़वी होगी, सिट्ट बिल्कुल नहीं होंगे। भावना के अनुसार परिणाम सामने आया। पहले के खेत में खूब बाजरी हुई और दूसरे के खेत में टिड्डियाँ पाने से सारे सिट्टे नष्ट हो गए । भाव की सत्यता से जीव विशुद्धि को प्राप्त करता है। विशुद्ध भावना वाला प्राणी अरहंत प्रज्ञप्त धर्म की अाराधना में तत्पर होकर पारलौकिक धर्म का आराधक होता है। भावनायोग से शुद्धात्मा संसार में जल पर नाव के समान तैरता है। जैसे अनुकूल पवन का सहारा मिलने से नाव पार पहुँचती है उसी प्रकार शुद्धात्मा संसार से पार पहुंचता है-यथा-- भावणाजोग-सुद्धप्पा, जले नावा व आहिया। नावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥ (सूत्रकृतांग १५५५) आचरण की पवित्रता भावों की शुद्धता पर निर्भर है। जब तक भावों में शुद्धि नहीं हो जाती तब तक जीवन में धर्म नहीं टिक सकता। जो सरल हो जाता है उसी की शुद्धि होती है और जो भावों से शुद्ध होता है, उसी में शुद्ध धर्म ठहर सकता है। जिस प्रकार मेज की सफाई के लिए साफ कपड़े की जरूरत होती है उसी प्रकार जीवन या हृदय की स्वच्छता, शुद्धि के लिए भी शुद्ध भाव रूपी कपड़े की आवश्यकता स्वाभाविक है। यदि हमारे भाव शुद्ध हैं तो हमारा आचरण या कर्म भी शुद्ध होगा क्योंकि आचरण या कर्म ही तो भावों की छाया है । भाव बीज है तो पाचरण उसका फल है। शुद्ध भावों के संकल्प आसपास के वातावरण को भी शुद्ध बना देते हैं। तालाब में कंकर फेंकने से लहरें उठती हैं और एक के बाद दूसरी को जन्म देती हुई तट तक पहुंच जाती हैं उसी प्रकार शुभ भावों की लहरें भी समाज रूपी सरोवर में अपने सदृश लहरों को जन्म देती हुई समाज के एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँच जाती हैं। तीर्थकरों की धर्मसभा 'समवसरण' में सिंह और बकरी पास-पास बैठते हैं। कारण ? पवित्रता की प्रतिमूर्ति व्यक्ति के शुद्धभावों का प्रभाव । व्यक्ति के भावों में जितनी अधिक शुद्धता होगी जन-जन के मन पर उतनी ही प्रभावना अंकित होगी। भावों के विनिमय में सतर्कता अपेक्षित है। अन्यथा असदभावों के घने चक्कर में फंस कर व्यक्ति अपनी अजित पुण्य रूपी पूंजी गँवा देता है । असल में असद्भाव चाण्डाल है। शास्त्र में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव' ये चार प्रकार के चाण्डाल कहे गए हैं। नाम चाण्डाल और स्थापना चाण्डाल हमारा उतना नुकसान नहीं करते जितना द्रव्यचाण्डाल अर्थात् खोटे कृत्य वाला और भावचाण्डाल अर्थात् खोटे या निंद्य कर्मों की ओर प्रेरित करने वाला, करते हैं। भाव जब चाण्डाल बन जाता है तो हमारी आत्मा को अधोगति में ले जाता है। घरगो दीवो Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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