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________________ चतुर्थ खण्ड / २५६ आध्यात्मिक क्षेत्र में भावों की शुद्धि अनिवार्य मानी गई है। यदि आप प्रात्मा के राज्य में पहुँचना चाहते हैं, विषय-कषायों का शमन करके, प्राधि-व्याधि-उपाधि को पार कर केवलज्ञान और मुक्ति पाना चाहते हैं तो आपको सर्वप्रथम भावों, अध्यवसायों, परिणामों की शुद्धि करनी ही होगी। भावों की शुद्धि के बिना ध्यान, दान, तप, जप, सब सार्थ नहीं हो सकेंगे। भावों की शुद्धि सतत रहे, तांता टूटे नहीं। इसके लिए दो उपाय हैं-एक तो अभ्यास और दूसरा वैराग्य । अभ्यास और वैराग्य के लिए आलम्बन की जरूरत होती है । अनुप्रेक्षाएँ और भावनाएँ क्रमशः वैराग्य और अभ्यास के मुख्याधार हैं। इनके परिशीलन, चिन्तन, मनन से प्रात्मा का उत्कर्ष सम्भव है। ध्येय अर्थात मोक्ष की प्राप्ति सहज हो सकती है। आवशुद्धि के लिए प्राचार्य अमितगति सूरि ने सामायिक पाठ में भावनाओं के चार प्रकार वताएँ हैं-यथा सत्वेषु मैत्री, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ अर्थात् हे प्रभो ! मेरी यह आत्मा प्राणिमात्र के प्रति सदैव मैत्रीभावना, गुणीजनों के प्रति प्रमोदभावना, दुःखी जीवों पर करुणा भावना और विपरीत वृत्ति वालों पर माध्यस्थ्य भावना रखे। इस प्रकार मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य इन चारों भावनामों का अभ्यास जीवन में सक्रियता, सजगता लाता है। 'मेरी भावना' नामक प्रसिद्ध कृति में पंडित जुगलकिशोर मुखत्यार द्वारा इन चारों भावनाओं का सुन्दर-सरल निरूपण हरा है-यथा मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे। दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे ॥ दुर्जन, क्रूर, कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे। साम्यभाव रखू मैं उन पर ऐसी परिणति हो जावे ॥ गुणीजनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे । बने जहाँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ॥ पातंजल-योगदर्शन में भी इन चारों भावनाओं का सुफल द्रष्टव्य है-"सुख-दुःखपुण्यापुण्यानां मैत्री-करुणा मुदितोपेक्षाभावनातश्चित्तप्रसादनम्।" अर्थात् मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा इन चारों भावनाओं से क्रमश: सुखी दुःखी, पुण्यवान् और पुण्यहीन के चित्त को प्रसन्न किया जा सकता है। अपना चित्त भी भावशुद्धि और सद्गुण वृद्धि से प्रसन्न होता है। बौद्ध धर्म में भी इन चारों भावनाओं में रमण करने को 'ब्रह्मबिहार' अर्थात शुद्धात्मा में विचरण की संज्ञा दी गई है। वस्तुतः जीवन में इन चारों भावनाओं के प्रयोग से तथा सतत अभ्यास से साधक बंकिम मार्ग से हटकर समता के प्रशस्त पथ पर आरूढ़ हो जाता है। भावना का एक नाम अनुप्रेक्षा है । ध्येय के अनुकूल गहरा चिन्तन, अवलोकन अनुप्रेक्षा कहलाता है। अनुप्रेक्षा से अनुप्राणित ध्याता वस्तुस्वरूप का चिन्तन करके अपने स्वभावस्वरूप में स्थिर रहता है । इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग में सहिष्णुता और धैर्य का जाम पीते हुए वह सम रहता है तथा किसी भय और प्रलोभन के कारण धर्मपथ से च्युत नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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