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________________ अर्चनार्चन पंचम खण्ड / १६८ (चित्रिनी), सबसे भीतर की ब्रह्मनाड़ी कही गई है । ब्रह्मनाड़ी अत्यंत बारीक तन्तु की भाँति होती है जो विभिन्न चक्रों को पूष्पनालिका की भांति जोड़ती है। सुषुम्ना में जो ६ चक्र होते हैं वे चित्रा नामक परत में होते हैं । इन चक्र-स्थानों पर नाड़ियों के पुष्पाकार गुच्छ होते हैं। ये स्थान स्रावयुक्त संवेदनशील ग्रन्थियों के रूप में होते हैं तथा शक्ति व चेतना के महत्त्वपूर्ण केन्द्र माने गये हैं। इनके जागरण एवं साक्षात्कार के लिये केवल योगाभ्यास ही नहीं अपितु ध्यान एवं एकाग्रता भी आवश्यक है । इस प्रकार से चक्र कुण्डलिनी की सूक्ष्म अंतर्यात्रा के प्रत्यंत मार्मिक पड़ाव हैं जो केवल साधकों को ही प्रत्यक्ष हो सकते हैं। आधुनिक शरीर-विज्ञानी इन चक्र-स्थानों का महत्त्व तो जानते हैं किन्तु इन चक्रों को भौतिक रूप में प्रत्यक्ष कर पाने में असफल रहे हैं। कुण्डलिनी का स्वरूप-कंडलिनी-शक्ति को जीवात्मा के रूप माना गया है। इसका रूप सपिणी की भांति होता है। वह साढ़े तीन प्रांटों वाली बताई गई है। गुदा के पीछे एक मांसपेशी होती है जो सामान्यतः ९ अंगुल लम्बी तथा ४ अंगूल मोटी होती है। इसे कन्द कहते हैं । कन्द के मध्य में विषु चक्र नामक एक नाभिवत् केन्द्र होता है । इस केन्द्र पर शक्ति निष्क्रिय रहती है। सर्पाकार कुंडलिनी इसी स्थान पर अधोमुखी होकर विश्राम करती है। विषु चक्र को धारण करने वाली एक मांसपेशी और होती है, इसे अधःसहस्रार कहते हैं। चूंकि कुंडलिनी की यात्रा के पूर्व साधकों के समस्त प्राण समष्टि रूप धारण कर सर्वप्रथम यहां एकत्रित होते हैं, इस कारण इस केन्द्र का महत्त्व अन्य चक्रों की अपेक्षा कम नहीं है। तन्द्रिलावस्था से जब कुंडलिनी जाग्रत होती है तो सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से ऊर्ध्वमुख यात्रा प्रारम्भ कर सहस्रार चक्र में विराजमान अपने अनन्त काल से बिछुड़े प्रियतम से मिलने चल पड़ती है। यह मार्ग अविद्याग्रस्तता एवं माया के आवरणों के कारण अवरुद्ध हुअा रहता है किन्तु इड़ा एवं पिंगला द्वारा जब प्राणायाम क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं तो प्राण एवं अपान के मिल जाने से यह मार्ग खुल जाता है। प्राण वायु द्वारा सुषुम्ना-मार्ग जैसे ही स्वच्छ किया जाता है, कुण्डलिनी की यात्रा की प्रारंभिक तैयारी पूर्ण हो जाती है। वस्तुतः ये चन्द्र और सूर्य नाड़ियाँ, प्राण और अपान वायु के माध्यम से जगत् के धनात्मक (ह) और ऋणात्मक (ठ) तत्त्वों को समन्वित कर जैसे ही गतिशील करती हैं, अनन्त काल से कुण्डली बांधे सोयी अधोमुखी अधःस्थित जीवात्मा प्राणायामयुक्त साधना द्वारा प्रधमित अग्नि से आकुलित हो अपना अलसायापन त्याग कर सुषुम्ना के इस खुले, स्वच्छ एवं शीतल मार्ग पर ऊपर की ओर बढ़ने लगती है। इस ऊर्ध्वमुखी यात्रा के निमित्त वह ब्रह्मनाड़ी का सूत्र ग्रहण करती है तथा चित्रिनी (चित्रा) स्थित चक्रों को पार करती हई सहस्रार की ओर बढ़ जाती है। इन चक्रों के नाम क्रमश: मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध एवं प्राज्ञा हैं। ये चक्र विभिन्न लोकों से सम्बन्धित होते हैं। इन तांत्रिक सूक्ष्म चक्रों के विभिन्न बीज, तत्त्व, देवता, शक्ति, वर्ण आदि होते हैं। इन चक्रों का स्वरूप पूष्पवत होता है। विभिन्न चक्रों की विभिन्न पंखड़ियां होती हैं। जब कंडलिनी इन चक्रों का बेध करती है तो साधक को विशेष प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है। यदि साधक इन सिद्धियों का लौकिक लाभ लेने लगता है तो उसका पतन ध्रव है। किन्तु यदि अपने आध्यात्मिक उद्देश्यों के प्रति तीव्र अभीप्सा, निष्ठा एवं दृढ़ता को वह बनाये रखता है तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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