SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 940
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पातंजल-योग और जैन-योग: एक तुलनात्मक विवेचन / ११ आत्मसंस्कार अर्थात् अधर्म का नाश और धर्म की वृद्धि हो जाती है और "योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः" अर्थात् तपश्चर्या, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और धारणा रूप अध्यात्मविधि से अपवर्ग प्राप्त हो सकता है।' वैशेषिकदर्शन-महर्षि कणाद के वैशेषिकसूत्र में भी योग विषयक अंगों का एक दो सूत्रों में उल्लेख हया है ।२ जैसे अभिषेचन, उपवास, ब्रह्मचर्य, गुरुकुलवास, वानप्रस्थ, यज्ञ, दान, ब्री ह्यादि के प्रोक्षण, दिशा के नियम, काल के नियम । ये प्रकारान्तर से योग के अंग हैं। कपिलदर्शन--महषि कपिल ने सांख्यसत्र की रचना की है। इसमें योग-प्रक्रिया प्ररूपक कुछ सूत्र आए हुए हैं। जैसे ध्यान, धारणा और प्रासन का स्वरूप आदि। ब्रह्मसूत्र--महर्षि बादरायण के ब्रह्मसूत्र में भी योगांगों का उल्लेख मिलता है।४ पातंजलदर्शन--भगवान् पतंजलि ने योग का सांगोपांग विवेचन किया है। उनका 'योगसूत्र' योग विषय का अविकल ग्रन्थ है। इस पर अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं। अतः इस परपंरा में योग-सिद्धांत निरूपक विपुल साहित्य उपलब्ध है। सांख्य-योगदर्शन में ध्यान को ही प्रमुख रूप से योग कहा गया है। योग की परिभाषा देते हुए लिखा है कि चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहते हैं । इसके पश्चात् योग के पाठ अंग-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। जैनदर्शन-जैन भागमों में योग के लिए तप, ध्यान और संवर शब्दों का प्रयोग बहुधा किया गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द, उमास्वाति, पूज्यपाद, हरिभद्र, हेमचन्द्र, योगचन्द्र, नागसेन, पं० प्राशाधर, यशोविजय आदि जैनाचार्यों ने भारतीय योगसाहित्य को संवद्धित किया है। यह साहित्य निम्नांकित है प्राचार्य उमास्वाति : तत्त्वार्थसूत्र (९ वा अध्याय), पूज्यपाद : समाधितंत्र, इष्टोपदेश, स्वामिकार्तिकेय : कार्तिकेयानुप्रेक्षा, हरिभद्र : योगदृष्टिसमुच्चय, योगबिन्दु, योगविंशिका, योगशतक, षोशडप्रकरण ।, १. तदर्थ यमनियमाभ्यामात्मासंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः । ज्ञानग्रहणाभ्यासस्तद्विद्यैश्च सह संवादः। -न्यायदर्शन ४।२।४६-४७ २. अभिषेचनोपवास-ब्रह्मचर्य-गुरुकुलवासवानप्रस्थ-यज्ञदानप्रोक्षणदिङ नक्षत्रमन्त्रकालनियमाश्चा दृष्टाय। -वैशेषिकदर्शन, ६।२।२ ३. रागोपहतिया॑नम् । -३१३०, वृत्तिनिरोधात् तसिद्धिः।-३।३१, धारणासनस्वकर्मणा तसिद्धिः। -३१३२, निरोधाश्छदिविधारणाभ्याम् । -३१३३, स्थिरसुखमासनम् । -३।३४ ४. आसीनः संभवात् । ध्यानाश्च । यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् । -४।११७-८ और ११ ५. भा. द. (संपादक डॉ.न. कि. देवराज) पृष्ठ सं. ३९४-३९५ ६. योगसूत्र १२२ आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy