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________________ पंचम खण्ड / १२ । अर्चनार्चन योगेन्द्रदेव : परमात्मप्रकाश, अध्यात्मसंदोह, सुभाषितरत्नसंदोह, गुणभद्र : प्रात्मानुशासन, अमितगति : योगसार, शुभचन्द्र : ज्ञानार्णव, हेमचन्द्र : योगशास्त्र, योगचन्द्र : योगसार, नागसेन : तत्त्वानुशासन, पं० प्राशाधर :-अध्यात्मरहस्य, यशोविजय : अध्यात्मसार, अध्यात्मनोपनिषद्, योगलक्षण, योगविंशिका । इसके अलावा विभिन्न भाषाओं में लिखित काव्य, नाटक और उपन्यासों में भी योग का विवेचन हुआ है। इतने विपुल साहित्य में योग सिद्धांतों के उपलब्ध होने का कारण जैन धर्म दर्शन का निवृत्ति प्रधान होना और मोक्ष प्राप्ति प्रधान होना है। आचार्य कुन्दकुन्द के 'प्रवचनसार' में योग के स्थान पर उपयोग का प्रयोग मिलता है । उन्होंने उपयोग के तीन भेद-अशुभोपयोग, शुभोपयोग और शुद्धोपयोग बतलाकर उनका सूक्ष्म विवेचन किया है और शुद्धोपयोग को मोक्ष का कारण प्रतिपादित किया है।' 'नियमसार' में उन्होंने योग की परिभाषा करते हुए कहा है कि विपरीत अभिनिवेश का त्याग करके जैन-कथित तत्त्वों में जो अभिनिवेश को लगाता है, उसका निज भाव योग कहलाता है। हरिभद्र ने अपनी कृतियों में योग का सूक्ष्म विवेचन किया है। 'योगविशिका' में उन्होंने सर्व विशुद्ध धर्मव्यापार को योग कहा है।३। यशोविजय ने समिति और गुप्ति के साधारण धर्मव्यापार को योग कहा है। शुभचन्द्राचार्य ने जन्म ग्रहण करने से उत्पन्न क्लेशों को दूर करने को योग कहा है। उपर्युक्त योग की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि संसारी जीव क्रोधादि कषायों से संतप्त होकर दुःखी है। इस असहनीय दुःख का विनाश करने के लिए भव्य जीव जिस निर्दोष, निरवद्य क्रिया का अनुष्ठान करता है, वह योग कहलाता है । सम्पूर्ण योग सम्बन्धी वाङमय में यही एकमात्र अर्थ विवक्षित है। अतः योग का पर्यवसान आत्मशक्तियों के पूर्ण विकास में है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र-ये तीन योग के अंग बतलाये १. प्रवचनसार ११७, ९११-१२ २. नियमसार, परमभक्त्यधिकार, गा. १३९ ३. मुक्खेण जोयणायो जोगो सव्वो वि धम्मवावारो। परिसुद्धो विन्नेग्रो ठाणाइगो विसेसेणं । -योगविशिका, १ ४. समितिगुप्तिसाधारणं धर्मव्यापारत्वं योगत्वं । -योगदृष्टिसमुच्चय(गुजराती) भूमिका पृ.२१ ५. भवप्रभवदुर्वार-क्लेश-सन्तापपीडितम् ।। योजयाम्यहमात्मानं पथि योगीन्द्रसेविते । -शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव १११८ और भी देखें श३९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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