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________________ पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन | १३ हैं।' महाव्रत, गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह-जय, चारित्र और तप सम्यक्चारित्र के प्रभेद हैं । पातंजलदर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये योग के पाठ अंग माने गये हैं। यम और महावत-'यमयन्ति निवर्तयन्तीति यमाः' अर्थात जो अवांछनीय कार्यों से निवृत्त कराते हैं, उन्हें यम कहते हैं। यम का अर्थ संयम है। असत् प्रवृत्तियों को रोकने के लिए सामान्य अशुद्धियों को दूर करना आवश्यक होता है। योगदर्शन में यम पांच प्रकार का बतलाया गया है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । जैनदर्शन में "यम" के लिए महाव्रत का प्रयोग मिलता है । हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह, इन अशुभ कर्मों का त्याग करना व्रत कहलाता है।४ अणुव्रत और महाव्रत की अपेक्षा से व्रत के दो भेद किये गये हैं। अणुव्रत का अर्थ है हिंसादि का स्थूल रूप (एकदेश) से त्याग करना। इसका पालन गृहस्थ करते हैं। महाव्रत का अर्थ होता है हिंसादि का सूक्ष्म रूप से सर्वत्याग करना। इसका पालन मुनि करते हैं। शुभचन्द्राचार्य ने कहा है कि अहिंसादि महान् अतीन्द्रिय सुख और ज्ञान के कारण हैं, महान् पुरुषों ने इनका आचरण किया है, महान पदार्थ अर्थात मोक्ष के देने वाले हैं और स्वयं निर्दोष हैं। इसलिए अहिंसादि महाव्रत कहलाते हैं। यम तो केवल निषेधात्मक मात्र हैं और महाव्रत भावात्मक भी हैं। प्रत्येक महाव्रत की पांच भावनाएं हैं। इनका अभ्यास करने से वैराग्य होता है और व्रत स्थिर रहते हैं। अष्ट प्रवचन-माता : गुप्ति और समिति-महाव्रती को अपने व्रतों का दृढतापूर्वक पालन करने के लिए और नवीन कर्मों को रोकने के लिए मन, वचन एवं काय गुप्ति तथा ईर्या, भाषा, एषणा, प्रादान-निक्षेप और उत्सर्ग, इन पांच समितियों का पालन करना भी आवश्यक है। गुप्ति का अर्थ है रक्षा करना। जिसके द्वारा संसार के कारणों से प्रात्मा की रक्षा होती है, उसे गुप्ति कहते हैं । योगी महाव्रती को मन, वचन और काय की प्रवृत्ति पर संयम रखना आवश्यक है। इनकी स्वच्छन्द प्रवत्ति से नवीन कर्मों का पाना नहीं रुक सकता है। इसलिए उमास्वाति ने मन-वचन-काय रूप योगों का अच्छी तरह से निरोध करने को गुप्ति कहा है। १. 'ज्ञान-श्रद्धान-चारित्ररूपं रत्नत्रयं च सः।' -योगशास्त्र, १११५. २. त० सू० ९।२-३, ज्ञानार्णव ८।२-३ ३. योगसूत्र, २।३० ४. उमास्वाति, त० स०, ७.१ ५. वही, ७२ और भी देखें सर्वार्थसिद्धि टीका ६. ज्ञानार्णव १८१ ७. वही १८१२ और भी देखें तत्त्वार्थसत्र ७।३-८ ८. त० सू० ९।४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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