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पंचम खण्ड / १४
महाव्रती को किसी न किसी प्रकार की चेष्टाएँ करनी पड़ती हैं। अतः उसे इस प्रकार की चेष्टाएँ करनी चाहिए जिससे सूक्ष्म प्राणियों को भी पीड़ा न हो। ऐसा करने से नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता है । इस सम्यक् आचरण या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं।'
जिस मार्ग पर लोगों का आना-जाना शुरू हो गया हो, उस मार्ग पर सूर्य की किरणों . के निकलने पर जीवों की रक्षा के लिए नीचे देखकर चलना ईर्यासमिति है ।
महाव्रती द्वारा संदेह उत्पन्न करने वाली द्वयर्थक भाषा न बोलना तथा निर्दोष, सर्वहितकर, परिमित, प्रिय और सावधानीपूर्वक वचन बोलना भाषासमिति कहलाती है।
निर्दोष आहार ग्रहण करना एषणासमिति है। शास्त्र आदि को भलीभांति देखकर, प्रमादरहित होकर रखना-उठाना आदान-निक्षेप समिति है।
निर्जीव स्थान पर सावधानीपूर्वक कफ, मल, मूत्र आदि का त्याग करना उत्सर्ग समिति है।
हेमचन्द्र, शुभचन्द्र आदि प्राचार्यों ने तीन गुप्तियों और पांच समितियों को अष्ट प्रवचनमाता कहा है । क्योंकि ये योगियों के चारित्र की कर्म-रज से उसी प्रकार रक्षा करती हैं, जिस प्रकार माता अपने पुत्र के शरीर की धूलि से करती है। इसलिए महाव्रती को इनका पालन करना आवश्यक है। योगदर्शन में यमों की रक्षा के लिए इस प्रकार का कथन नहीं है।
नियम-नियम योग का दूसरा अंग माना गया है। 'नियमन्ति प्रेरयन्ति नियमाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार नियम का अर्थ है शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करना । प्राचार्य कुन्दकुन्द के 'नियमसार' में कहा गया है कि जो नियम से किया जाता है वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप नियम है। योगसूत्र में नियम के पांच भेद बतलाये गये हैं-शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान ।४।।
शौच-शौच का अर्थ होता है पवित्र या शुद्ध। योगदर्शन में शौच दो प्रकार का बतलाया गया है-बाह्य शौच और प्रान्तरिक शौच । मृत्तिका, जल आदि पदार्थों से पवित्र होना, स्नान करना, पवित्र भोजन करना बाह्य शौच है। मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा
१. पूज्यपाद, सर्वार्थ सिद्धि ९।९ २. (क) जनन्यो यमिनामष्टौ रत्नत्रयविशुद्धिदाः । एताभी रक्षितं दोष, निवृन्दं न लिप्यते ॥
-शुभचन्द्र, ज्ञानार्णव १८।१९, पृ. १७८ (ख) एताश्चारित्रगात्रस्य जननात् परिपालनात् । संशोधनाच्च साधनां मातरोऽष्टी प्रकीर्तिता॥
-हेमचन्द्र, योगशास्त्र ११४५ और भी देखें २४६ ३. "णियमेण यजं कज्ज तण्णियमं णाणदंसणचरित्तं।"-नियमसार गा. ३ ४. योगसूत्र २।३२
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