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________________ पंचम खण्ड/१० रूप में वे व्यवहार में प्रतिष्ठित भी हए हैं।"" बंदिक साहित्य में योग-वैदिक साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ 'ऋग्वेद' माना जाता है। उसके अनेक मंडलों में "योग" शब्द का उल्लेख हना है। यहां पर योग जोड़ने अर्थ में प्रयुक्त हुअा है । अर्चनार्चन उपनिषद-ऋग्वेद के पश्चात उपनिषदों का अनुशीलन करने पर विभिन्न उपनिषदों में योग के विभिन्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं। जहां कठोपनिषद्, तैत्तिरीयोपनिषद, छान्दोग्य, बृहदारण्यक आदि में प्रात्म-साक्षात्कार और समाधि के अर्थ में योग, ध्यान और तप शब्द का प्रयोग मिलता है, वहीं अर्वाचीन उपनिषदों में योग के विविध अंगों का भी वर्णन मिलता गीता-गीता में योग के तीन रूप दृष्टिगोचर होते हैं -कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग। इसके अलावा योग प्रक्रिया और उसके सिद्धान्तों का विवेचन भी किया गया है। बौद्ध दर्शन-'विसुद्धिमग्ग' में शील-समाधि का विवेचन उपलब्ध है। बौद्धदर्शन में ध्यान की प्रक्रिया को समाधि कहा गया है, अत: यहाँ योग का अर्थ समाधि है । शील के द्वारा अकुशल कर्म दूर हो जाते हैं और समाधि अवस्था में कुशल कर्मों की अोर चित्त एकान हो जाता है। चित के एकाग्र हो जाने से तृष्णा और वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं। समाधि दो प्रकार की हैउपचार समाधि और अप्पना समाधि । उपचार समाधि में चित्त एकाग्र होता है और अप्पना समाधि में चित्त को अत्यधिक शुद्ध बनाने की प्रक्रिया होती है। इस प्रकार क्रमश: प्रज्ञा उत्पन्न होने पर अर्हत् अवस्था प्राप्त हो जाती है। इसके बाद स्कन्धों, पुनर्जन्म, दुःख तथा पीड़ा से प्रात्यंतिक निवृत्ति हो जाती है। न्यायदर्शन-यद्यपि महर्षि गौतम के न्यायदर्शन में प्रमुख रूप से प्रमाणादि सोलह पदार्थों का विवेचन हा है लेकिन योग सम्बन्धी कुछ प्रक्रिया का भी इसमें उल्लेख मिलता है। जैसे समाधि विशेष के अभ्यास से प्रत्यक्ष रूप से तत्त्वज्ञान होता है। अरण्य, पर्वतगुहा, बालुमय नदी के किनारे प्रादि एकान्त स्थानों में योगाभ्यास करना चाहिए। यम और नियम के द्वारा १. पं. सुखलाल संघवी-समदर्शी प्राचार्य हरिभद्र, राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुर (राजस्थान), १९६३, पृष्ठ ६९ २. सुरेन्द्रदास गुप्ता, भा. द. भाग१, पृ. २३४, ३. "योग आत्मा" -ते. उ. २।४ तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् । अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययो ।। -कठोपनिषद् २।३।११ श्वेताश्वतरोपनिषद् २।८-१५ गीता के अध्याय ६ और १३ दृष्टव्य हैं। ६. 'समाधिविशेषाभ्यासात् ।' -न्यायदर्शन ४।२।३८ ७. अरण्य-गुहापुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः। -न्यायदर्शन ४।२।८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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