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________________ पातंजल-योग और जैन-योग : एक तुलनात्मक विवेचन / ९ योग का अर्थ-"योग" का साधारण अर्थ जोड़ना या मिलाना होता है । "योग" शब्द की निष्पत्ति "युज" धातु से हुई है। यह धातु दो अर्थों में प्रयुक्त हुई है-जोड़ना और समाधि । इन दोनों अर्थों में योग शब्द भारतीय वाङमय में उपलब्ध है। इसके बावजूद अध्यात्म-विकास के संदर्भ में योग का अर्थ समाधि होता है। जैनदर्शन में "योग" शब्द विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हमा है। उमास्वाति ने मन, वचन और काय की प्रक्रिया के अर्थ में "योग" शब्द का प्रयोग किया है । ' इसी प्रकार भट्ट अकलंकदेव, वीरसेन प्रादि के ग्रन्थों में प्रात्म-प्रदेशों के हलन-चलन और आत्म-प्रदेशों के संकोच-विकोच के अर्थ में योग शब्द प्रयुक्त हुआ है। भद्र प्रकलंकदेव ने "योजनं योगः" इस निरुक्ति के अनुसार योग का अर्थ संबंध किया है। वीरसेन ने भी "युज्यत योगः" इस प्रकार योग की निरुक्ति करके योग का अर्थ संबंध माना है। इसी प्रकार जैन वाङमय में जीव की शक्तिविशेष और वर्षादि काल की स्थिति के अर्थ में भी योग शब्द का प्रयोग मिलता है । लेकिन अध्यात्म-विकास के संदर्भ में योग के उपर्युक्त अर्थ सार्थक नहीं हैं। इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि जैन-दर्शन में 'योग' शब्द का अर्थ अध्यात्म-विकास के संदर्भ में उपलब्ध नहीं है। प्राचार्य पूज्यपाद, भट्ट अकलंकदेव, पद्मनंदि प्रभृति प्राचार्यों ने योग का अर्थ समाधि, सम्यक् प्रणिधान, ध्यान, साम्य, स्वास्थ्य, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग किया है। उपर्युक्त अर्थों के अलावा जैनदर्शन में योग के लिए संवर शब्द का भी प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुमा, विशेषकर पागम साहित्य और द्रव्यानुयोग वाङमय में । अतः योग का अर्थ संवर भी है। अतः हम कह सकते हैं कि सोख्य-योगदर्शन में जिस ध्यान की प्रक्रिया को योग कहा गया है, उसे बौद्ध-दर्शन में समाधि और जैन-दर्शन में संवर कहा है। पंडित सुखलालजी संघवी ने कहा भी है-"सांख्य परिव्राजकों की ध्यान-प्रक्रिया योग के नाम से विशेष प्रसिद्ध हुई और बुद्ध की ध्यान-प्रक्रिया समाधि के नाम से व्यवहृत हुई, तो आजीवक और निर्ग्रन्थ परम्परा में इसके लिए संवर शब्द विशेष प्रचार में प्राया। इस तरह हम कह सकते हैं कि योग, समाधि, तप और संवर ये चार शब्द आध्यात्यिक साधना के समग्र अंग-उपांगों के सूचक हैं और इसी १. तत्त्वार्थसूत्र ६१ २. भट्ट अकलंकदेवः, तत्त्वार्थवार्तिक ६।१।१०, पृष्ठ ५०५ ३. 'अयं योग शब्द: संबंधपर्यायवाचिनो द्रष्टव्यः ।' वही ७।१३।४, पृष्ठ ५४० ४. षट्खण्डागम, पु. १, खं. १, भाग १, सूत्र ४, पृष्ठ १३९ ५. 'योगश्च वर्षादिकालस्थितिः ।' -दर्शनपाहड, टीका, ९८ ६. (क) योगः समाधिः सम्यक् प्रणिधानमित्यर्थः।-प्रा. पूज्यपाद, स. सि. ६।१३, पृष्ठ २४६ (ख) युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनान्तरम् । -भट्ट प्रकलंकदेव, त. वा. ६।१।१२, पृष्ठ ५०५, और भी देखें-६।१२।८ पृष्ठ ५२२ (ग) साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम। शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः। -पदमनदि पंचविंशतिका ४१६४ आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.janelorary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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