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पंचम खण्ड | २६२
करने से व्यक्ति सभी प्रकार के कष्टों को सहन करने में समर्थ हो जाता है और ममत्व के प्रति किचित् भी स्नेह नहीं रह जाता है। जिस प्रकार शूरवीर युद्ध में अग्रणी होकर सभी प्रकार के कष्टों को सहन करते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो जाता है, उसी प्रकार ध्यानी अपने लक्ष्य की ओर बढ़ जाता है।'
मन, वचन और काय इनकी वृत्तियों को रोकने के लिए शुक्लध्यान की आवश्यकता होती है । इसके लिए प्राचार्यों ने क्षमा, मार्दव, प्रार्जव और मुक्ति को प्रधान बतलाया है। इसी के साथ अन्य कई विचार प्रस्तुत किये हैं तथा यह बतलाया है कि अन्तःकरण की शुद्धि के लिए मुक्तिसाधना का मार्ग परम आवश्यक है।
अर्चनार्चन
भावनायोग
___ "जे एगं जाणइ से सब्वं जाणई" यह प्राचारांग की एक सूक्ति है, जिसमें भावना का विचार स्पष्ट है। व्यक्ति के लिए साधनामार्ग में लगने के लिए जहाँ धामिक चिन्तन को आवश्यक माना गया है वहीं सांसारिक चिन्तन का होना भी ध्यान का एक साधन कहा जा सकता है, जब तक व्यक्ति संसार की प्रसारता के विषय में अपनी भावना व्यक्त न करे तब तक उसे संसार का आभास हो ही नहीं सकता है। प्राचारांगसूत्र में तत्त्वदर्शी के लिए कहा गया है
"भूए हि जाणे पडिलेह सायं" २ अन्य प्राणियों के साथ अपने पर विचार करे।
भावना एक वैचारिक दष्टिकोण है, जिसे अनुप्रेक्षा नाम दिया गया है। यह शब्द स्थानांग में विशेषरूप से पाया है। जिसका अर्थ अपने भावों को, सांसारिक धारणामों को वास्तविकतापूर्वक चिन्तन, मनन करना एवं सत्य की वास्तविकता को पहचानना है। सर्वप्रथम प्रागमों में चार अनुप्रेक्षाएँ थीं-(१) एकत्व (२) अनित्य (३) अशरण और (४) संसार अनुप्रेक्षा।
सिद्धान्त ग्रन्थों में बारह भावनाएँ योग से सम्बन्धित कही गई हैं, जिनका अपना विशेष महत्त्व है। यदि मैं इन पर विचार करके अपना स्वतन्त्र चिन्तन रखू तो यह बात कह सकूँगा कि ये बारह भावनाएं वैराग्यपूर्ण हैं और इनका योगसाधना के लिये चिन्तन किया जाना प्रावश्यक है।
इससे साधक विकारों से निर्मल, शरीर से सहनशील और मन से दृढ संकल्पी बन सकेगा।
१. आचारांग अध्ययन ३ का समग्र अंश २. आचारांग तृतीय अध्ययन, द्वितीय उद्देशक ३. स्थानांग ४।१२४७ ४. (अ) वही-'धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुपेहाप्रो पण्णत्तानो तहा
एगाणुप्पेहा अणिच्चाणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा ।" (ब) आचारांग २।२ (स) भगवतीसूत्र २०१ (द) सूत्रकृताङग १७।११
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