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________________ जैन आगमों में योगदष्टि | २६१ और वह निरन्तर सोचता है कि जगत में जितने भी जीव हैं वे सभी अपना हित चाहते हैं इसलिए "सन्वेसिं जीवियं पियं" की भावना अपने हृदय में ग्रहण करके चार घातिया कर्मों को क्षय करने के लिए निरन्तर ही प्रयत्नशील होता है। इस प्रकार के प्रयत्न से वह मन, वचन और काया की शुद्धि को कर लेता है। जैनयोग के मर्मज्ञ प्राचार्य हरिभद्रसरि ने समता को परिमार्जन का साधन कहा है और यह भी बतलाया है कि जो साधना के शिखर पर आरूढ होकर कर्म की ग्रन्थियों को काट देता है वह समत्वयोग का धनी हो जाता है।' प्रश्नव्याकरणसूत्र में कारुण्य भाव का जो निर्देश है वह समतापरक ही है ।२ ध्यानयोग साधना मार्ग में साधक चित्त की एकाग्रता के लिए विविध प्रकार के साधनों का प्रयोग करता है परन्तु ज्ञान की एवं प्रात्मा की वास्तविकता के लिए ध्यानयोग मुक्ति का सोपान कहा जा सकता है। क्योंकि ध्यान कर्मों के क्षय करने के लिए किया जाता है। प्रागमग्रन्थों में इसी दृष्टि को ध्यान में रख कर चार प्रकार के ध्यानों का वर्णन है १. प्रार्तध्यान २. रौद्रध्यान ३. धर्मध्यान ४. शुक्लध्यान । सिद्धान्त ग्रन्थों में इन्हीं का विवेचन किया गया है। इनमें से दो ध्यान संसार से सम्बन्धित माने गए हैं और दो-धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान मुक्ति के सोपान कहे गए हैं। ध्यान करने वाला मुक्तिसाधना के लिए प्रयत्नशील होता है, वह अपने किये हुए कर्मों को क्षय करने के लिए अनुचिन्तन, मनन आदि का जो मार्ग अपनाता है, वह साधना का मार्ग है। प्रागमों में भगवतीसूत्र, स्थानांग, प्रोपपातिक, प्राचारांग आदि के चिन्तन से यह निष्कर्ष निकलता है कि तत्त्वों का पालम्बन लेकर ध्यान करने वाला जो प्रयत्न करता है वह तप है, संयम है एवं चतुर्गति के कारणों को रोकने वाला है । आचारांग में ध्यान के जो साधन बताये गये हैं वे महत्त्वपूर्ण हैं । इसमें लिखा है कि "राइ दिवंपि जयमाणे अपमत्ते समाहिए झाई।" अर्थात् रात और दिन अप्रमत्त रूप से समाधिपूर्वक ध्यान करना चाहिए। समाधि के लिए धर्मध्यान और शुक्लधान पावश्यक माने गए हैं। नौवें अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में महावीर के प्रासनों का, ठहरने के स्थानों का, ध्यान के केन्द्रों का जो वर्णन है वह अधिक विचारणीय कहा जा सकता है। "अयमुत्तमे से धम्मे"--यह उत्तम ग्राचार है" ऐसा संकेत ध्यानस्थ का प्रमुख अंग माना गया है क्योंकि ध्यानी सर्दी आदि के प्रति विचार न करते हुए समियाए ठाइए3-समतापूर्वक ध्यान करते थे। यही नहीं अपितु इसी अध्ययन में यह स्पष्ट किया है कि समतापूर्वक ध्यान १. योगदृष्टिसमुच्चय, पृ. १३ २. प्रश्नव्याकरणसूत्र-सव्व जवीरक्खणट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं । ३. प्राचारांग अध्ययन ९ उद्देशक २, गाथा १५ आसनस्थ तब आत्मस्व मब तब हो सो आश्वस्त जद Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwjalimellorary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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