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पंचम खण्ड | २६०
चनार्चन
होने एवं चित्त के संकल्प एवं विकल्प के क्षय होने पर जो भाव जागृत होता है वह जागत भाव आध्यात्मिक शक्ति का अपूर्व गुण माना जाता है। आचारांग के प्रथम शस्त्रपरिज्ञा अध्ययन के सातों उद्देशकों में एकेन्द्रिय अादि जीवों की जो रक्षा करने की बात कही गई है वह मनोवैज्ञानिक कही जा सकती है। लोकविजय अध्ययन कर्मों के कारणों की शान्ति का अर्थात क्षय का कथन करने वाला है और इसी में अनेक चित्तता प्रादि का जो कथन किया गया है वह भी व्यक्ति को संकल्प, विकल्पों से मुक्त कराता है क्योंकि प्राध्यात्मिक योग का लक्ष्य है असीम शक्ति की प्राप्ति करना। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में "जोगवाही" शब्द का प्रयोग किया है जिससे योग का कथन स्पष्ट होता है और इसी के प्रागे जो भी कथन किया गया है वह सब विविध आयामों को लिए हए अध्यात्मयोग के भावों को स्पष्ट करता है।
अध्यात्मयोग में मुख्यत: ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की बात को ले सकते हैं और इसीके अन्तर्गत तप के चिन्तन को भी प्रस्तुत किया जा सकता है। तप का जो वर्णन है वह सभी आगमों में विस्तार से देखा जा सकता है । औपपातिकसूत्र में तपोधिकार, उपासकदशांग का प्रथम अध्ययन योग की मर्यादा, प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध का प्रथम उद्देशक, दशवैकालिक, भगवतीसूत्र, स्थानांग, प्रादि सभी प्रागमों में अध्यात्मयोग के विषय में विस्तार से विवेचन है।
समतायोग
आचारांग का सूत्र ही है "समियाए धम्मे" अर्थात् समता का नाम धर्म है।' "तुममेव तुम मित्रं"२ यह सूत्र समता के पाठ को स्पष्ट करता है। सूत्रकृतांग में समता-विषयक जो बात कही गई है वह पाचारांग के उक्त सूत्र पर विवेक की दृष्टि प्रतिपादित करती है जिसमें यह लिखा है
"सव्व जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सइ णो करेज्जा ।"3
अर्थात् सभी जगत को समतापूर्वक देखो, प्रिय और अप्रिय समझना ठीक नहीं है । सूत्रकृतांग के द्वितीय अध्ययन में समतापूर्वक धर्म का उपदेश करने के लिए भी कहा है।
दशवकालिक में रागद्वेष से रहित भावों को सम अर्थात् समतापूर्ण बतलाया है।"
समता प्रात्मा का गुण है, इसके बिना मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियों को नहीं रोका जा सकता है। समता ध्यान की क्रियानों के लिए अतिपावश्यक कही जा सकती है क्योंकि यह राग, द्वेष और मोह के अभाव होने पर ही होती है। ज्ञानी पुरुष कर्मों के क्षय करने के लिए जब प्रवृत्त होता है, तब वह सर्वप्रथम साम्यभाव को ही धारण करता है
१. आचारांग १-१ २. प्राचारांग ३-३ ३. सूत्रकृतांग १०-७ ४. वही २-२ ५. दशवकालिक ९-११
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