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चतुर्थ खण्ड | ३०८
धर्मबिन्दु के प्रारम्भ में ही श्रावक धर्म को उपर्युक्त रूप में विभाजित कर सामान्य धर्म निर्देश इस प्रकार किया है
(१) कुल-परम्परानुसार अनिंद्य आचरणपूर्वक न्यायानुसार द्रव्यार्जन करना। प्राचार्य ने इस बिन्दु पर सर्वाधिक बल दिया है। यह तथ्य है कि समृद्धि होने पर दो प्रकार की शंकायें जन्म लेती हैं। एक तो भोक्ता पर संदेह प्रकट होता है और दूसरा भोग्य पर। इन दोनों शंकाओं और संदेहों से बचने के लिए न्यायोपार्जन सर्वाधिक उपयुक्त साधन है। जैसे मेंढक कुए की अोर और पक्षी सरोवर की ओर स्वतः अभिमुख होते हैं वैसे ही शुभकर्म और न्यायोपार्जन करने वालों की ओर लक्ष्मी पराधीन की तरह दौड़ पड़ती है। यह प्रवृत्ति इहलोक और परलोक के लिए सुखदायी होती है। अन्यायपूर्वक सम्पत्ति का अर्जन एकांततः सुखदायी नहीं होता।
हरिभद्रसूरि के उत्तरवर्ती लगभग सभी श्रावकाचारों में न्यायमार्गीय वत्ति पर अधिक बल दिया गया है। जिनेश्वर सूरि का षटस्थान प्रकरण तथा रत्नशेखर सूरि की श्राद्धविधि का विशेष उल्शेख किया जा सकता है । दिगम्बर परम्परा के प्राचार्यों ने भी इसे श्रावक का प्रथम कर्तव्य माना है। पं० आशाधर ने श्रावक धर्म के योग्य पात्रों की गुरु शृखला में न्यायोपार्जन को सर्वप्रथम स्थान दिया है। ऐसा लगता है कि हरिभद्रसूरि कालीन जैन-समाज अन्यायपूर्वक द्रव्यार्जन करने लगा होगा। यही कारण है कि प्राचार्य को श्रावक के गुणों और व्रतों में न्यायोपार्जन वत्ति को समाविष्ट कर बार-बार उसे स्मरण करना पड़ा।
(२) प्राचार्य ने सामान्य धर्म की श्रेणि में दूसरा क्रम समान कुल, शील वाले भिन्न गोत्री के साथ विवाह को दिया है। उनकी दष्टि में इससे पारस्परिक प्रीति और स्नेह बन रहता है, छोटे-बड़े का भाव नहीं पा पाता और प्राचार व्यवस्था में भी कोई बाधा नहीं होती। इस संबंध में टीकाकार ने कन्या की प्रायु १२ वर्ष और पुत्र की सोलह वर्ष विवाह के योग्य मानी है जिसे आज स्वीकार नहीं किया जा सकता । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने स्त्री को गृहकार्य तक ही सीमित रखने की वकालत की है।
(३) गृहस्थ का तृतीय धर्म है सदाचारियों की प्रशंसा करना । योगबिन्दु में प्राचार्य ने लोकापवाद से भय, दीन जनों का उद्धार, कृतज्ञता, साधुजनों की प्रशंसा, विनम्रता, अपव्यय से दूर रहना, अप्रमादिता आदि गुणों को सदाचार के अन्तर्गत माना है।
(४) इसके बाद कुछ और भी धर्मों का परिपालन एक सामान्य गृहस्थ के लिए पावश्यक बताया है-(१) इन्द्रिय-संयमन, (२) उपद्रवग्रस्त स्थान का त्याग, (३) योग्य व्यक्ति का आश्रय, (४) सत्संगति, (५) योग्य निवासस्थान, (६) देश-परिस्थिति के अनुसार वेश धारण, (७) आयोचित व्यय, (८) देशाचार परिपालन, जिससे स्थानीय लोग विरुद्ध न हो सर्के (९) निंदित कार्य में अप्रवृत्ति, (१०) राजा आदि की निन्दा न करना, (११) माता-पिता का सत्कार (१२) अशांति के कारणों का त्याग (१३) आश्रितों का भरण-पोषण, (१४) पोष्य
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