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________________ वीतराग-योग/ ३१ संयम-शील-यम पाप प्राणी के प्रान्तरिक या पात्मिक विकारों या दोषों का ही अपर नाम है। दोष ही दुःख के कारण हैं। अतः दोषों की वृद्धि से दुःख की वृद्धि, दोषों की कमी से दुःख की कमी एवं दोषों के प्रभाव से दुःख का अभाव होता है। दोष दो रूप में प्रकट होते हैं, यथामानसिक एवं ऐन्द्रियक । मानसिक दोषों को कषाय एवं ऐन्द्रियक दोषों को विषय कहा जा सकता है। ये ही विषय, कषाय समस्त दुःखों के कारण हैं अतः पाप हैं। इनकी अभिव्यक्ति जिन कार्यों में होती है, उन कार्यों को भी पाप कहा जाता है। पाप मुख्यतः पाँच हैं, यथाहिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह । साधक के लिए इनका त्याग अनिवार्य है। कारण कि हिंसा के त्याग से क्रूरता मिटकर मित्रता, प्रात्मीयता, दया, करुणा, सर्वहितकारी प्रवृत्ति का प्रसार होता है । झूठ के त्याग से अविश्वास मिटकर विश्वास, सत्यता व प्रामाणिकता का प्रादुर्भाव होता है। चौर्यकर्म के त्याग से शक्ति, सम्पत्ति व अधिकार का अपहरण व शोषण मिटकर नैतिकता व समता को बढ़ावा मिलता है। कुशील के त्याग से व्यभिचार, दुराचार मिटकर सदाचार का पोषण होता है। परिग्रह के त्याग से संग्रहवत्ति, विषमता व संघर्ष मिटकर समता व शांति का विस्तार होता है। उपर्युक्त दोषों के मिटने से दुष्टता का नाश एवं शिष्टता का पोषण व धर्म का प्रचार व प्रसार होता है। जिससे वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक व राजनैतिक, आर्थिक, आदि जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्रों की समस्याएं समाप्त होती हैं व सर्वत्र सुख-शांति का साम्राज्य हो जाता है। ये पांचों पापरूप दुष्प्रवृत्तियां चित्त को प्रशान्त बनाती हैं, अन्तःकरण में अन्तर्द्वन्द्व पैदा करती हैं। हृदय में कठोरता, क्रूरता, रुद्रता, जड़ता, निर्दयता, दानवता को जन्म देती हैं । समाज और संसार में संघर्ष, कलह, क्लेश और कष्ट उत्पन्न करने वाली हैं । अतः शांतिप्रेमी साधक के लिए इनका त्याग करना अर्थात् अहिंसा, सत्य, अक्रोध, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को अपनाना आवश्यक है। जैनधर्म में इन दुष्प्रवृत्तियाँ के पूर्ण त्याग व व्रत को संयम या महाव्रत और आंशिक त्याग को अणुव्रत कहा है। बौद्धधर्म में पंचशील कहा है, केवल अपरिग्रह के स्थान पर मद्य-निषेध (अमूर्छाभाव) कहा है तथा अष्टांगिक मार्ग में प्राणातिपात, अदत्तादान, अब्रह्मचर्य के त्याग को सम्यक् कर्मान्त में एवं मृषावाद के त्याग को सम्यक् वाचा में स्थान दिया गया है । जैनदर्शन में जिसे संयम या महाव्रत कहा है, उसी को योगदर्शन में यम (महाव्रत) कहा है। यथा-अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः । जातिदेशकाल-समयानवच्छिन्ना सार्वभौमा महाव्रतम् ।-योगशास्त्र २-३०, ३१ । अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम हैं और इनका जाति, देश, काल व समय की सीमा से रहित होकर पूर्ण रूप से पालन करना महाव्रत है। यही नहीं प्राज जो विश्व के समस्त देशों की सरकारों ने यहां तक कि धर्म और ईश्वर का अपलाप करने वाले साम्यवादी विचारधारा वाले देशों के विधानों में भी आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrasyarat
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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