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पंचम खण्ड / ८४ जाय तो फिर सर्वज्ञता भी सिद्ध हो और उससे सिद्धि-सिद्धावस्था या मुक्तावस्था भी प्राप्त हो जाय ।""
यह एक विकल्प है जो प्राचार्य ने स्वयं प्रस्तुत किया है, जिसका समाधान उपस्थितकरते हुए उन्होंने बताया है"ऐसा हो नहीं सकता शास्त्र द्वारा सर्वथा परिज्ञान सम्भव नहीं है। यह तो प्रातिभज्ञान- प्रतिभा से उत्पन्न होने वाले ज्ञान से ही सम्भव है, जो सामर्थ्ययोग में सधता है, जो वाणी का विषय न होकर प्रान्तरिक अनुभूति का विषय है । सर्वज्ञत्व आदि उसी अनुभूतिपरक दिव्यज्ञान से फलित होते हैं।
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प्रतिभा का अर्थ विशिष्ट प्रकाश प्रसाधारण ज्योति या श्रात्मानुभूति का धालोक है। यह तभी प्राविर्भूत होता है जब अन्तरतम में ज्ञान की एक दिव्य झलक उद्भासित होती है। सामयोग में अन्तःसामर्थ्य के कारण ऐसी स्थिति सम्भावित है, जो गूंगे के गुड़ की तरह अनुभव ही की जा सकती है, वाच्य विषयता में नहीं ली जा सकती ।
सामर्थ्ययोग के दो भेद हैं, जिनका विवेचन प्राचार्य हरिभद्र के शब्दों में निम्नांकित है-
"धर्म संन्यास तथा योग-संन्यास के नाम से सामर्थ्ययोग दो प्रकार का है। क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले भाव धर्म कहे जाते हैं और शरीर आदि के कर्म योग कहे जाते हैं। धर्म-संन्यास में क्षायोपशमिक भावों का तथा योग-संन्यास में शरीर, मन एवं वाणी के कर्मों का संन्यास या त्याग होता है।"3
धर्मसंन्यासयोग
धर्मसंन्यासयोग में साधक कर्मों को खपाता - खपाता प्रागे बढ़ता है । कर्मों के क्षय से क्षायिक भाव उत्पन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में क्षायिक सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र यादि गुण प्रकट होते हैं, वैसी स्थिति में क्षायोपशमिक भाव छूटते जाते हैं ।
मन, वचन व शरीर के योगों या कर्मों का प्रभाव साधक की जिस अवस्था में होता है, वह प्रयोगावस्था शास्त्रीय भाषा में प्रयोगकेवली दशा कही जाती है अर्थात् योग-संन्यास वहाँ सघता है, जहाँ साधक प्रकर्ष की उच्चतम स्थिति पा लेता है ।
प्राचार्य ने धर्म संन्यास और योग-संन्यास का तात्त्विक दृष्टि से घोर विशद विश्लेषण करते हुए लिखा है
"प्रथम प्रकार का सामर्थ्य योग मर्थात् धर्म संन्यास योग- तात्विक धर्म संन्यास योग
१. सर्वथा तत्परिच्छेदात् साक्षात्कारित्वयोगतः । तत्सर्वशरवसं सिद्धेस्तदा सिद्धिपदाप्तितः ॥ २. न चैतदेवं यत्तस्मात् प्रातिभज्ञानसंगतः । सामर्थ्य योगोऽवाच्योऽस्ति सर्वज्ञत्वादिसाधनम् ॥ ३. द्विधाऽयं धर्मसंन्यास - योग संन्याससंज्ञितः । क्षायोपशमिका धर्मा योगाः कायादिकर्म तु ॥
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-योगदृष्टिसमुच्चय ७
-- योग दृष्टिसमुच्चय
- योग दृष्टिसमुच्चय ९
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