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________________ आलंकारिक दृष्टि से श्री उत्तराध्ययनसूत्र : एक चिन्तन / ९९ गाथा १६-माणसत्त भवे मूलं, लाभो देवगई भवे । मूलच्छएण जीवाणं, नरगतिरिक्खत्तणं धवं ।' ---मनुष्य भव मूल धन है, देवभव लाभ रूप है और नरक-तिर्यंचभव मूलधन की हानि रूप है अतः रूपक अलंकार दृष्टव्य है । गाथा १९-'मूलियं ते पवेसन्ति माणसं जोणि.....'----मूलधन के समान मनुष्य योनि अत: उपमा तथा अनुप्रास । गाथा २३--'जहा कुसग्गे उदग्गं-समुद्देण सम्मं मिणे ।'—समुद्र की तुलना में कुशाग्रजल जैसे क्षद्र है वैसे 'माणस्सगा कामा-देवाकामाण अंतिए' देव के कामभोगों के सामने मनुष्य के कामभोग क्षुद्र हैं । उदाहरण तथा अनुप्रास और समालंकार । अध्ययन ८–गाथा ५-- 'बज्झई मच्छिया व खेलंमि' -भोगों में प्रासक्त जीव कर्म से वैसे ही बँध जाता है जैसे श्लेश्म कफ में मक्खी । इसमें उदाहरण अलंकार है। साथ ही गाथा में अनुप्रास है। गाथा ६-'अह संति सुव्वया साहू, जे तरंति अतरं वणिया व !'--जो सुव्रती साधक साधु हैं वे दुस्तर कामभोगों को उसी प्रकार तैर जाते हैं जैसे वणिक समुद्र को ! -- इसमें भी उदाहरण एवं अनुप्रास अलंकार है। गाथा ७-'पाणवह मिया अयाणंता'-पशु की भांति अज्ञानी जीव । उपमा तथा अनुप्रास । गाथा ९-'तओ से पावयं कम्म, निजाइ उदगं व थलाओ।'--सम्यक प्रवत्ति वाले साधक के जीवन से पापकर्म वैसे ही निकल जाता है जैसे ऊँचे स्थान से जल । उदाहरण अलंकार । गाथा १८-'नो रक्खसीसु गिज्झज्जा, गंडवच्छासु अणेगचित्तासु । 'जाओ परिसं पलोभित्ता, खेल्लति जहा व दासेहि ।' प्रस्तुत गाथा में 'गंडवच्छासु'--'वक्ष में फोड़े रूप स्तन वाली' में रूपक तथा 'दासेहि' में वासनासिक्त मनुष्य को दास की उपमा दी गई है। अध्ययन ९-गाथा ९-१०--'मिहिलाए चेहए वच्छ, सीयच्छाए मणोरमे। पत्त-पुप्फ-फलोवेए, बहूणं बहुगुणे सया। वाएण हीरमाणंमि, चेइयंमि मणोरमे। दुहिया असरणा अत्ता, एए कंदंति भो ! खगा ॥' यहाँ नमि राजर्षि ने अपने आपकी चैत्य-वक्ष से और पुरजन तथा परिजनों को पक्षियों से उपमित किया है अत: ये गाथाएँ रूपक अलंकार की श्रेष्ठ द्योतक हैं। साथ ही 'वच्छे' (वृक्ष और राजषि) 'खगा' (पक्षी और पुरजन तथा परिजन) शब्द श्लेष अलंकार को अभिव्यक्त कर रहे हैं। गाथा १४-इस गाथा में 'किंचण' शब्द दो बार आया अत: यमक तथा अनुप्रास अलंकार है गाथा में ! तथा विरोधाभास अलंकार भी दृष्टव्य है, क्योंकि नमि राजर्षि इन्द्र से कहते है कि मिथिला के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है 'न मे डज्झइ किचण' जब कि वे महाराजा हैं और सारा राज्य उनका है । धम्मो दीटो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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