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________________ द्वितीय खण्ड | १७० हुआ कि अब तक जो प्रतिकूल हो रहा था अनुकूल होने लगा। नाना प्रकार की वस्तुएँ अज्ञातरूप से घर में आने लगीं, साथ में लिखे हुए पत्र भी आने लगे। मेरे भतीजे मूलचन्द को एक पत्र से अादेश मिला कि म० सा० के पास जाकर मांगलिक सुना करो। वह प्रतिदिन म० सा० की सेवा में जाने लगा। सबसे बड़ा . आश्चर्य तो तब हुआ जब उसने एक डेढ़ घण्टे में पूरा प्रतिक्रमण सीख लिया। शेष पत्र तो छोटे-छोटे आते थे परन्तु एक दिन बहुत बड़ा पत्र महाराजश्री के नाम आया जिसमें उनके प्रति श्रद्धा के भाव निहित थे। एक दिन जमीन पर लिखा हुआ मिला कि म० सा० के पत्र के अलावा शेष पत्रों को जला दो । मेरे ग्यारह वर्षीय भतीजे ने भूल से अन्य पत्रों के साथ म० सा० के पत्र को भी आग लगा दी । लेकिन हैरानी का विषय तो यह हुआ कि अन्य पत्र तो जल गये लेकिन वह पत्र यथावत् रहा । महासतीजी से जब इस घटना का रहस्य पूछा गया तो वह केवल मुस्करा दी। __सन् १९८२ का चातुर्मास अजमेर में निश्चित हुआ। मैं विहार में म० सा० के साथ ही थी । रास्ता लम्बा होने कारण हम एक मकान में ठहर गये । वहाँ से २ कि० मी० की दूरी पर लामाना नामक एक छोटा सा गांव था वहाँ २-३ व्यक्ति संदेहास्पद स्थिति में घूम रहे थे। सुप्रभा म० सा० ने शंका व्यक्त को कि इनकी प्रवृति अच्छी नहीं लगती। संध्या प्रतिक्रमण अभी समाप्त हुआ ही था कि ५-७ व्यक्ति वहाँ आकर अनर्गल प्रश्न पूछने लगे। म० सा० ने समझाने का बहुत प्रयास किया लेकिन वह अधिक दूर नहीं गये। रात के ढ़ाई-तीन बजे तक उन्होंने हमारे पास आने का बहुत प्रयास किया परन्तु सफल नहीं हो सके । उस समय अचानक तेज प्रकाश हुआ और मेरे शरीर में विचित्र से स्पन्दन होने लगे । मैं म० सा. के निकट थी। न जाने कौन-सी दिव्यशक्ति ने मेरे शरीर में प्रवेश किया। उनमें से दो व्यक्ति तो मूच्छित होकर गिर गये, शेष भाग गये। उन्होंने लामाना ग्राम में जाकर ३-४ घरों में चोरियाँ की तो वहाँ पकड़े गये। पूजनीया गुरुणीजी म० सा० ऐसे अवसरों पर प्राय: यही कहती हैं कि ये भगवान् पार्श्वनाथ व जयमलजी म० सा० के नाम का ही प्रभाव है। सन् १९७८ ई० में म० सा० का चातुर्मास अपनी जन्मभूमि दादिया ग्राम में था । मेरी भतीजी का ससुराल दादिया से ८ मील की दूरी पर झाडोल में है। उसने अठाई की तपस्या की। पच्चखाण म. सा. के मखारविन्द से दादिया जाकर लिये । जैसे ही वापस गांव जाने के लिए रवाना हुए, बहुत तेज वर्षा शुरू हो गई । उनकी गाडी बराबर चल रही थी। विस्मय की बात है कि उन पर पानी की एक बूंद भी नहीं गिरी। मेरी भतीजी पूरे रास्ते श्री अर्चना जी म. सा० का नाम लेती रही। इसे पढ़ने वाले चाहे असंभव मानें परन्तु यह मेरी भतीजी का अनुभूत सत्य है । मेरी गुरुणी सा० के चरणों में यही प्रार्थना है कि वह मुझे जीवन के संघर्षों से जूझने के लिए बल प्रदान करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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