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निर्मल मन्दाकिनी : महासती श्री अर्चनाजी / ८९
विश्लेषण करना वस्तुतः नन्हीं नन्हीं भुजाओं से अपार समुद्र को पार करने जैसा संभव कार्य है ।
इस अवसर पर मैं कुछ ऐसी ही स्थिति अनुभव कर रही हूँ, कि एक तुच्छ किरण अपने सूरज के सम्बन्ध में क्या प्रकाश डाले, एक बूंद अपने सागर के लिए क्या कहे ? मूक मन ग्राह्लादित कर देने वाली अनन्त सुरभि के लिए क्या बतलाए ? फिर भी मैं अपनी समग्र शक्ति को सहेजती हुई कुछ साहस बटोरती हूँ, अपनी आराध्या पर कुछ लिखने के लिए ।
जहाँ महाराणा प्रताप जैसे वीर पैदा हुए, प्राचार्य हरिभद्र जैसे ज्ञानी जन्मे, जहाँ प्रेमदीवानी मीरां के गीतों ने वायुमण्डल को पवित्र बनाया, योगी श्रानन्दघन की साधना फली, उसी राजस्थान के दादिया गाँव में पिताश्री मांगीलालजी एवं माताश्री अनूपादेवी की कुक्षि से वि. सं. १९७९ को जन्माष्टमी के दिन आपका जन्म हुआ | आपके जन्म पर श्रानन्द की उमियां तरंगित हुईं । किन्तु कालगति को कौन जानता है, सात दिन के पश्चात् ही माता का वियोग हो गया । अब तो मातृवात्सल्य से वंचित उमा के लिए पिता का स्नेह ही जीवन का सम्बल रहा ।
आपने बचपन में ही उज्ज्वल, निर्मल संस्कार आपने पिताजी एवं बड़े पिताजी श्रीमान् लक्ष्मणसिंहजी, बड़ी माताजी उगमकंवरबाईजी से प्राप्त किये, जो आपके लिए जीवन में पावन पाथेय के सदृश सिद्ध हुए और जो आपको संघर्ष के बीहड़ वन भी आगे बढ़ने की सदा प्रेरणा देते रहे
जीवन के बारहवें वर्ष में प्रवेश करते ही ग्रापश्री को परिणय सूत्र में श्राबद्ध कर दिया गया ।
विधि की कैसी विडम्बना रही कि विवाह के दो वर्ष बाद ही आपके पति श्रीमान् चम्पालालजी ने इस संसार के महाप्रयाण कर दिया। हंसी खुशी, आँखों की चमक और मन का रोमानी उत्साह पलक झपकते समाप्त हो गया। फूल - सी कोमल बालिका यह सब कुछ समझ भी न सकी और जीवन एक मोड़ पर आकर खड़ा हो गया ।
संक्षिप्त जीवन की विपदाओं के बीच ग्रापके चिन्तन ने एक अभिनव मोड़ लिया । पुनः आशा की किरण चमकने लगी । आपके अन्तस्तल में संयमी जीवन अपनाने की भावना जाग्रत हुई और पिता-पुत्री संयम मार्ग पर अग्रसर होने को तत्पर हुए । 'जहाँ चाह वहाँ राह' की उक्ति के अनुसार आपके पिताश्री ने मारवाड़प्रवर्तक स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. सा. के पास एवं आपने महासतीजी श्री सरदारकुंवरजी म. सा. की शिष्या के रूप में श्रमण दीक्षा अंगीकार की । - श्रापश्री का नाम उमा से महासतीजी श्री उमरावकुंवरजी म. सा. रखा गया ।
संयम ग्रहण करने के पश्चात् श्रपश्री विनय को जीवन का मूलमन्त्र, गुरुआज्ञा को धर्म की श्राधारशिला, जिज्ञासा को संयम की दीपशिखा के रूप में उत्तरोत्तर विकसित करती गईं । आपने गुरुवर्या के विधि-निषेधपरक संकेत-सूत्रों
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