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________________ द्वितीय खण्ड / ९० में अपना सारा चिन्तन केन्द्रित कर दिया । कुशाग्र बुद्धि एवं लक्ष्य के प्रति अडिग निष्ठा के बल पर ज्ञान-ज्योति का विस्तार होने लगा और अतिशीघ्र ही आपने जैन आगमों एवं शास्त्रों का गहन परिशीलन कर दर्शन, साहित्य, वेद, उपनिषद, पुराण, गीता, महाभारत, कुरान, बाइबिल आदि ग्रन्थों का पारायण कर अध्ययन . में बड़ी प्रौढ़ता प्राप्त की। यह बड़े महत्त्व की बात है, विपुल ज्ञान होने पर भी आपमें जरा भी अहंकार नहीं है । यही आपके जीवन की समुन्नति का मूल मंत्र रहा । मैंने बहुत ही निकटता से देखा है, अनुभव किया है आपकी सौम्यता सहृदयता, स्नेहशीलता, सरलता, सहजता और सदा प्रमुदित रहने वालो भव्य मुख-मुद्रा हर किसी को प्रभावित किये बिना नहीं रहती, जो आपके संपर्क में आता है। अापका बाह्य व्यक्तित्व जितना समज्ज्वल, आकर्षक तथा शान्त है. आपका अन्तरंग भी उतना ही निश्छल, निर्लेप एवं दर्षण की तरह साफ-सुथरा है । आपका हृदय शिशु के समान सरल एवं निर्मल है । आपके व्यवहार में बनावट/सजावट प्रदर्शन नाममात्र को नहीं है । “जहा अन्तो तहा बहि" के अनुसार आपका भीतरबाहर समान है, न दुराव, न छिपाव, न छल, न प्रपंच । आपकी वाणी में माधुर्य, गाम्भीर्य, सारल्य, सारस्य समन्वय एवं अनेकान्त के तार झंकृत होते हैं। आपश्री की तर्कणा-शक्ति अदभत है। प्रश्नकर्ता जिस रुख में प्रश्न पूछता है, उसी मुद्रा में पाप उत्तर देते हैं। अापकी प्रवचन शैली बड़ी मधुर एवं प्रभावपूर्ण है। आपके प्रवचन सदा मौलिकतायुक्त एवं हृदयस्पर्शी होते हैं। आपके प्रवचनों में गम्भीर आध्यात्मिक विषयों पर, योग साधना पर विस्तृत व्याख्याएं एवं तात्त्विक उपदेशों का प्राधान्य होने पर भी श्रोता कभी ऊबते नहीं हैं । आपकी यह विशेषता है कि गूढ से गूढ तात्त्विक विषय को भी आप बड़ा रोचक, सरल, आकर्षक एवं मोहक बना देते हैं। आपश्री किसी भी जाति से अनुबंधित नहीं हैं । अत: आपके प्रवचन सर्वजनहिताय, सर्वजन सुखाय होते हैं । आपश्री के प्रेरक उपदेशों से प्रभावित होकर सहस्रों लोगों ने माँस, मदिरा, द्यूत, आखेट आदि सप्त-कुव्यसनों का त्यागकर सात्त्विक जीवन जीने का संकल्प किया। आपके मन में सभी धर्मों के प्रति समन्वयात्मक दृष्टिकोण विद्यमान है। इसलिए आप अपने प्रवचनों में सभी धर्मों की महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं का यथावसर प्रतिपादन करते रहते हैं । आपके अनुसार यह संसार अनेक धर्मरूपी फूलों की वाटिका है । जिस प्रकार एक वाटिका में तरह-तरह के फूल एक साथ अपनी-अपनी रंग-विरंगी छटाओं से वाटिका की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार विश्वरूपी वाटिका में भिन्न-भिन्न धर्म भी अपने-अपने सिद्धांतों द्वारा अनुपम प्राध्यात्मिक आनन्द का मार्ग बताते हैं। VANA Jain Education Yhternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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