SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्मल मन्दाकिनी : महासती श्री अर्चनाजी / ९१ आपके मन में दृढ़ विश्वास है कि मनुष्य गुरु की कृपा से ही परमात्मा को पा सकता है। आपका मन इस बात से बड़ा पीड़ित है कि आज के विद्यार्थियों के मन में अपने गुरु के प्रति तनिक भी श्रद्धा, भक्ति व प्रेम नहीं रहा । आज छात्रों को विनय, शिष्टता, अनुशासन, कर्तव्यपालन और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाती है। इसलिए अाज चारों ओर उच्छृखलता और अनुशासनहीनता का वातावरण व्याप्त हो रहा है। भावी पीढ़ी के भविष्य के लिए आपके हृदय में तड़प है, पीड़ा है । बालक-बालिकाओं को सुसंस्कारित करने हेतु आपने "नैतिक शिक्षा और नई पीढ़ी" पर २०१ निबन्धों के माध्यम से अपने विचार प्रस्तुत किये हैं। आशा है, छात्र-छात्राओं के नैतिक निर्माण में वे उपयोगी सिद्ध होंगे। आपश्री के विचारों में सूक्ष्म, गहन चिन्तन तथा मानवीय दृष्टिकोण सन्निहित है। आपकी यह स्पष्ट धारणा है कि हम स्वर्ग और मोक्ष की चर्चा करने से पूर्व अपने-आपको मानव बनाने का प्रयास करें। विश्व के समग्र प्राणियों के प्रति मैत्री-भाव, अहिंसा तथा परोपकार मानवता के पवित्र सोपान हैं। धर्म और विज्ञान के सम्बन्ध में आये दिन विभिन्न विचार सामने आते हैं परन्तु आपश्री का स्पष्ट मत है कि विज्ञान और धर्म एक दूसरे के विरोधी नहीं हैं । विज्ञान को धर्म और नीति के अंकुश की आवश्यकता है। अहिंसा की जंजीर बांधकर धर्म के निर्देश पर यदि विज्ञान का उपयोग किया जाय तो विश्व में स्थायी शान्ति स्थापित की जा सकती है। आपश्री श्रुताराधना एवं साहित्यसाधना द्वारा अज्ञानान्धकार में भटक रहे जनजीवन को ज्ञान का दिव्य प्रकाश प्रदान कर रही हैं । आपके साहित्य में प्रतिभा की प्रौढ़ता, कल्पना की सूक्ष्मता, अनुभव की गहनता, अभिव्यक्ति की स्पष्टता, भावों की यथार्थता एवं रमणीयता, आदर्श की स्थापना तथा शिवत्व की भावना निहित है। सचमुच आपका बेमिसाल साहित्य मानव मूल्यों का एक ऐसा अद्वितीय दस्तावेज है, जो जीवन-पथ के पथिकों का अपनी गन्तव्य दिशा में अग्रसर होने में सदा पथ-प्रदर्शन करता रहेगा। आपका जीवन सर्व जन-हिताय, सर्व जन-सुखाय के पवित्र उद्देश्य के प्रति सर्वथा समर्पित है । प्रात्मकल्याण के साथ ही संसार के प्राणिमात्र को कल्याण की मंगल-भावना आपके अन्तरतम में सदैव हिलोरे लेती रहती है। आपने अपने शिष्यासमुदाय के साथ देश के विभिन्न प्रान्तों में बड़ी लम्बी-लम्बी पद-यात्राएं की, जिनमें राष्ट्र के जन-जीवन को निकट से देखने और उन्हें सदुपदेश देने के महत्त्वपूर्ण अवसर प्राप्त हुए। इन पद-यात्राओं के बीच आपने जन-जन को धर्म का वास्तविक स्वरूप हृदयंगम कराया और दिशाहीन एवं विभ्रान्त लोक-मानस का मार्ग प्रशस्त किया। आप अपने साधानामय जीवन की आध्यात्मिक सौरभ विकीर्ण करते हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only wwfullinelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy