SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 275
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय खण्ड / ९२ जहाँ भी पधारते हैं, वहाँ जन-जन के मस्तिष्क में अपने, अमल, धवल व्यक्तित्व की अमिट छाप छोड़ जाते हैं । दया की साकार प्रतिमा श्रद्ध या गुरुवर्या के हृदय में दीन दुःखी जनों के प्रति करुणा को निर्मल मन्दाकिनी सदा प्रवाहित रहती है। वस्तुतः संत का जीवन पारमार्थिक जीवन है । स्वयं कष्ट सहन कर दूसरों के जीवन का निर्माण करना उनका लक्ष्य होता है । वे अपने दुःख से नहीं अपितु जगत् के प्राणियों को अन्तर्वेदना से आकुल-पर्याकुल देखकर सिहर उठते हैं। रामचरितमानस में तुलसीदास ने कहा है सन्त हृदय नवनीत समाना, कहा कविन्ह पै कहे न जाना। निज परिताप द्रवइ नवनीता परदु.ख द्रवहिं संत सुपुनीता ।। संत का कोमल हृदय औरों के वेदनाजनित परिताप से नवनीत की भांति पिघल उठता है । "साधवो दीनवत्सला:" के अनुसार संत दीन जनों के प्रति वत्सल, दयालु होते हैं । केवल इतना ही नहीं वे पाप, ताप, प्राधि-व्याधि, उपाधि से भी छुटकारा दिलवाते हैं । कहा है गंगा पापं शशी तापं दैन्यं कल्पतरुर्यथा। पापं तापं च दैन्यं च, ध्नन्ति सन्तो महाशयाः॥ अर्थात् गंगा पाप का, चन्द्रमा ताप का और कल्पवृक्ष दीनता का नाश करता है किन्तु महामना संत पाप, ताप और दैन्य-तीनों से छुटकारा दिला देते हैं । आपश्री में यह सब साक्षात् परिदृश्यमान है। आपश्री ने दीन-दुःखी- वात्सल्य हेतु अनेक स्थानों पर पारमार्थिक संस्थाएं स्थापित की, जो निरन्तर अपनी सेवाएं दे रही हैं । उदाहरणार्थ-जोधपुर, नागौर तबीजी, अजमेर, उदयपुर, खाचरौद (म० प्र०) दौराई, मद्रास प्रभृति अनेक स्थानों में ये संस्थाएं स्वधर्मी-सहयोग सेवा समिति के नाम से प्रशंसनीय कार्य कर रही हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में लब्धियों का वर्णन पाता है । अहिंसा, संयम, तप, जप आदि की साधना से विशिष्ट विस्मयकारी लब्धियाँ-शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। आपश्री को कौनसी शक्ति-लब्धि प्राप्त है, यह तो विशेषज्ञ ही बता सकते हैं, पर इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि आपकी साधना ने सिद्धि का संस्पर्श कर लिया है। तभी तो हजारों व्यक्ति परिताप से ग्रस्त रोते-बिलखते आते हैं और प्रापश्री के दर्शन कर एवं मांगलिक श्रवणकर परिताप-मुक्त होकर अकथनीय प्रात्मशान्ति प्राप्त करते हैं. प्रसन्न-मद्रा में प्रस्थान करते हैं। भयंकर से भयंकर बीमारियों से कष्ट पाते सहस्रों जनों को हमने स्वस्थ एवं प्रसन्न होते देखा है। आपश्री त्रस्त एवं पीड़ित व्यक्तियों को पूज्य श्रीजयमलजी म. सा० का एवं महामंत्र नवकार का जाप बताते हुए यही फरमाते है कि दिव्य महान् आत्मा के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy