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निर्मल मन्दाकिनी : महासती श्री अर्चनाजी / ९३
प्रति अपनी श्रद्धा का कल-कल करता निर्भर यदि पूरे वेग से प्रवाहित होगा तो विकट से विकट और भारी से भारी बाधा की चट्टान भी ध्वस्त हो जायेगी | आवश्यकता है, एकाग्रता के साथ प्रभु का, इष्ट का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाए ।
जीवन एक प्रयोगशाला की भाँति है, जहाँ सुख, दुःख, उत्थान, पतन, हर्ष, विषाद सागर के ज्वार भाटे की तरह आते जाते रहते हैं । आपके जीवन में भी कई उतार-चढ़ाव आये किन्तु आप उन झंझावातों, संघर्षों के वात्याचक्र में सुमेरु की तरह अडिग, अटल, अचल रहे और सभी विघ्न बाधाओं को आत्मबल द्वारा पार करते हुए, "चरैवेति चरैवेति" के अनुसार उत्तरोत्तर अनवरत प्रागे बढ़ते रहे । आपने अपने जीवन में अनेकों बार अमृत के स्थान पर गरल पान किया, जिसे यदि शायर रघुपतिसहाय फिराक के शब्दों में कहा जाय तो यों होगा -
" शिव का विषपान तो सुना होगा । मैं भी ऐ दोस्त पी गया आँसू ||
आपश्री ने संघ में, समाज में, धर्म की प्रभावना / विकास हेतु अपनी साधना को चरम लक्ष्य तक पहुँचाने हेतु एवं शिष्याओं के जीवन को उज्ज्वल - परमोज्ज्वल बनाने हेतु अपनी पूर्ण चेतना एवं शक्ति लगाई, चाहे कितने की संघर्षो को झेलना पड़ा हो ।
आपश्री ने अमृत और विष दोनों को समान रूप से स्वीकार किया । फूलों के स्थान पर शूलों का वरण किया । कष्ट एवं विपत्ति के समय में भी आपके मुखमण्डल पर म्लान छाया का जरा भी आभास दृष्टिगोचर नहीं होता । घोर मुसीबतों के अवसर पर भी प्राप प्रफुल्लित गुलाब की तरह मुस्कराते रहते हैं । संकट की घड़ियों में भी आप धैर्य नहीं खोते और अपने साहस, धैर्य एवं शौर्य से दूसरों को भी प्रेरणा देते हैं ।
वास्तव में संघर्ष की क्रूरता को मुस्कान की सुरम्यता में परिवर्तित करने की विचित्र, द्वितीय कला आपश्री में है । आपश्री ने संघर्षों के कंटकाकीर्ण मार्ग पर
बढ़ते हुए भी जगत् को मृत ही लुटाया है, संयम, योग, साधना की सुरभि बिखेरी।
जैसाकि एक शायर ने कहा है
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मेरी कथा तो विषपान की कथा है जदीम ।
मैं जहर पीकर जमाने को दे सका अमृत ||
जीवन में आने वाली मुसीबतों के साथ-साथ दुनियाँ द्वारा आलोचना, टीकाटिप्पणी, निन्दा-बुराई अथवा इसके विपरीत प्रशस्तिगान, यशोगाथा - गान अर्थात् अनुकूल और प्रतिकूल परीषहों को समभाव से सहन करने की प्रापश्री में अद्भुत क्षमता है । संत कवि सुन्दरदास के शब्दों में आप संत का वास्तविक जीवन जी रहे हैं
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