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द्वितीय खण्ड / ९४
कोउक निन्दत कोउक वन्दत, कोउक भाव सों देत है लच्छन, कोउक कहत ये मूरख दीसत, कोउ कहत ये चतुर विचच्छन । कोउक आय लगावत चन्दन, कोउक डारत है तन-तच्छन,
सुन्दर काहू पे राग न रोष सो, ये सब जानिये सन्त के लच्छन । मानव घर से, परिवारों से, अपने तन से, कांचन-कामिनी से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है, उनसे अपना ममत्व मिटा सकता है परन्तु यश, सम्मान और प्रतिष्ठा से ममत्व तोड़ पाना बहुत कठिन है। किन्तु यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि आप लोकषणा को सर्वथा जीत चकी हैं। अापको ख्याति, प्रशस्ति और कीर्ति की जरा भी चाह नहीं है।
यदि कभी कोई साधु, साध्वी भाई-बहिन आपके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो आपका एक ही उत्तर होता है
"शब्दजालं महारण्यं, चित्तभ्रमणकारणम् ।" अर्थात् यह प्रशंसात्मक शब्दों का जाल वह बीहड़ वन है, जो चित्त को भटका देता है।
वास्तव में आपकी यह असाधारण विशेषता है।
योग एवं ध्यान आपश्री के जीवन में सहज रूप में व्याप्त है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा, निःसन्देह आपने ध्यान-सिद्धि प्राप्त की है। उसी का यह परिणाम है कि आपके मुख पर सात्त्विकता, पवित्रता, निर्मलता एवं दिव्यता की उज्ज्वल आभा साक्षात् परिलक्षित होती है। आपने ध्यान-साधनामूलक प्रेरणा द्वारा अनेकानेक साधक-साधिकाओं का साधना-पथ प्रशस्त किया है, उन्हें मार्ग-दर्शन दिया है, जिसका अवलम्बन कर आज वे अपने लक्ष्य की ओर सतत गतिशील हैं।
आप धन्य हैं, आपका जीवन धन्य है, आपकी साधना धन्य है। आपकी छत्रछाया हमें चिरकाल-पर्यन्त प्राप्त रहे, यही हमारी हार्दिक आकांक्षा है।
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