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________________ जैन आगमों में आयुर्वेद विषयक विवरण | ३२७ 3 आयु को स्थिर करने वाली व व्याधि-विनाशक औषधियों का विधान करने वाला प्रकरणविशेष । विपाकसूत्र में आयुर्वेद के पाठ प्रकारों का विवरण देकर आगे बताया गया है कि धन्वन्तरी वैद्य राजा तथा अन्य रोगियों को मांसभक्षण का उपदेश देता था, इस कारण वह (अपने पापकर्मों के कारण) काल करके छट्री नरक पृथ्वी में उत्कृष्ट २२ सागरोपम की स्थिति वाले नारकियों में नारक रूप से उत्पन्न हुना।' प्राचारांगसूत्र में निम्नलिखित सोलह रोगों का उल्लेख पाया जाता है (१) गण्डमाला, (२) कोढ़, (३) राजयक्ष्मा, (४) अपस्मार (मृगी), (५) काणत्व, (६) जड़ता (अंगोपागों में शून्यता), (७) कुणित्व (टूटापन, एक हाथ या पैर छोटा और बड़ा-विकलांग होना), (८) कुबड़ापन, (९) उदररोग (जलोदर, अफारा, उदरशूल आदि), (१०) मूकरोग (गूंगापन), (११) शोथरोग-सूजन, (१२) भस्मकरोग, (१३) कम्पनवात, (१४) पीठसपी-पंगुता, (१५) श्लीपद रोग-हाथीपगा एवं (१६) मधुमेह । विपाकसूत्र में जिन सोलह भयंकर रोगों का उल्लेख है, वे उपर्युक्त सोलह रोगों से भिन्न हैं। यथा (१) श्वास, (२) कास, (३) दाह, (४) कुक्षिशूल, (५) भगन्दर, (६) अर्श, (७) अजीर्ण, (८) दृष्टिशूल, (९) मस्तक शूल, (१०) अरोचक, (११) अक्षिवेदना, (१२) कर्णवेदना, (१३) खुजली, (१४) जलोदर, (१५) कोढ़, (१६) बवासीर । ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में भी उपर्युक्त सोलह प्रकार के रोगों के नाम मिलते हैं, किन्तु कुछ अन्तर भी दिखाई देता है। ज्ञाताधर्मकथा में पाये जाने वाले सोलह रोगों के नाम इस प्रकार हैं (१) श्वास, (२) कास, (३) ज्वर, (४) दाह, (५) कुक्षिशूल, (६) भगन्दर, (७) अर्श, (८) अजीर्ण, (९) नेत्रशूल, (१०) मस्तकशूल, (११) भोजन विषयक अरुचि, (१२) नेत्रवेदना, (१३) कर्णवेदना, (१४) कंडू, (१५) दकोदर–जलोदर प्रौर (१६) कोढ़ । रोगियों की चिकित्सा के लिए चिकित्साशाला (अस्पताल) तो होती थी, किन्तु वैद्य अपने घरों से शास्त्रकोश लेकर निकलते थे और रोग का निदान जानकर अभ्यंग, उबटन, स्नेहपान, वमन विरेचन, अवदहन (गर्म लोहे की शलाका प्रादि से दागना), अवस्नान (प्रौषधि के जल से स्नान), अनुवासना, (गुदा द्वारा पेट में तैलादि के प्रवेश कराने), वस्तिकर्म (चर्मवेष्टन द्वारा सिर आदि में तेल लगाना अथवा गुदाभाग में बत्ती प्रादि चढ़ाना), निरुह (एक प्रकार का विरेचन), शिरावेध (नाड़ी वेध कर रक्त निकालना), तक्षण (छुरे प्रादि से त्वचा आदि काटना), प्रतक्षण (त्वचा का थोड़ा भाग काटना), शिरोवस्ति (सिर में चर्मकोश बाँधकर उसमें संस्कृत तेल का पूरना), तर्पण (शरोर में तेल लगाना), पुटपाक (पाक) १. विपाकसूत्र, ११७।९-१० २. प्रथमश्रुतस्कंध ८।१।१७९ ३. श२२ ४. १३१२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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