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________________ चतुर्थ खण्ड / ३२६ (४) न आत्म चिकित्सक, न परचिकित्सक कोई वैद्य न अपना इलाज करता है और न दूसरे का ही इलाज करता है । ' · स्थानांगसूत्र में ही एक अन्य स्थान पर कायनपुणिक का उल्लेख है, जो शरीर की इडा पिंगला आदि नाड़ियों का विशेषज्ञ होता था, जिसे हम श्राज भी नाड़ीवैद्य की संज्ञा से अभिहित करते हैं। दूसरे चिकित्सानेपुणिक का उल्लेख है जिसे शारीरिक चिकित्सा करने में कुशल बताया है । ज्ञाताधर्मकथाङ्ग में चिकित्साशाला का उल्लेख है। जिसमें वेतनभोगी बंध तथा अन्य कर्मचारी रोगियों की सेवा-शुश्रूषा के लिए कार्यरत रहते थे। विवरण इस प्रकार है नन्द मणिकार सेठ ने पश्चिम दिशा के वनखण्ड में एक विशाल चिकित्साशाला बनवाई। वह भी अनेक सौ खंभों वाली यावत् मनोहर थी। उस चिकित्साशाला में बहुत से वैध, बंध-पुत्र, ज्ञायक ( वैद्यशास्त्र न पढ़ने पर भी अनुभव के आधार से चिकित्सा करने वाले अनुभवी ), ज्ञायक पुत्र कुशल ( अपने तर्क से ही चिकित्सा के ज्ञाता ) मोर कुशलपुत्र आजीविका, भोजन और वेतन पर नियुक्त किये हुए थे। वे बहुत से व्याधितों की ग्लानों की, रोगियों की पौर दुर्बलों की चिकित्सा करते रहते थे । उस चिकित्साशाला में दूसरे भी बहुत से लोग आजीविका, भोजन और वेतन देकर रखे गये थे । वे उन व्याधितों, रोगियों, ग्लानों और दुर्बलों की प्रीषध, भेषज, भोजन और पानी से सेवा-शुश्रूषा करते थे ।" 1 " इस विवरण से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि उस काल में सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रति उत्तरदायित्व की भावना विद्यमान थी। साथ ही व्यवस्थाकर्ता का उदार दृष्टिकोण भी प्रकट होता है । आयुर्वेद के प्रकार आयुर्वेद आठ प्रकार का बताया गया है यथा१. कुमारभृत्य या कौमारमृत्य- बाल रोगों का चिकित्साशास्त्र । - २. कायचिकित्सा- शारीरिक रोगों का चिकित्साशास्त्र | ३. शालाक्य —-शलाका के द्वारा नाक, कान आदि के रोगों का चिकित्साशास्त्र | ४. शल्यहत्या या शाल्यहत्या - आयुर्वेद का वह अंग जिसमें शल्य कण्टक, गोली श्रादि निकालने की विधि का वर्णन किया गया है । शस्त्र द्वारा चीरफाड़ करने का शास्त्र । ५. जंगोली या जांगुल आयुर्वेद का वह विभाग जिसमें विषों की चिकित्सा का विधान है। 4. ६. भूतविद्या- भूत, प्रेत, यक्षादि से पीड़ित व्यक्ति की चिकित्सा का शास्त्र । ७. क्षारतंत्र या बाजीकरण-बाजीकरण, वीर्यवर्धक औषधियों का शास्त्र । रसायन पारद आदि धातु-रसों आदि के द्वारा चिकित्सा का शास्त्र, अर्थात् ८. १. स्थानांगसूत्र ४१४५१७ २. ९।२८ ३. १३।१७ ४. स्थानांगसूत्र, ८।२६, विपाकसूत्र ११७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीवो संसार समुद्र में www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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