SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जय परम्परा के पांच पुष्प / १९ उनका कोई परिचय नहीं था। उन दिनों इन्दौर में जैन सन्तों का चातुर्मास था। उनमें से एक मुनिजी ने चार महीने की तपश्चर्या सिर्फ गर्म पानी के आधार पर ही की । आपके अग्रज उनकी सेवा में पहुँचे और जैन मुनियों के त्यागनिष्ठ जीवन से प्रभावित हुए। उन्होंने एक दिन मुनिजी को आहार के लिए निमंत्रण दिया क्योंकि वे जैनमुनियों के आचार-विचार से परिचित नहीं थे। अतः मुनिजी ने यही कहा कि यथा समय जैसा द्रव्य क्षेत्र काल भाव होगा देखा जायेगा। सौभाग्य से सन्त घूमते-घूमते उसी गली में जा पहुंचे और उनके घर में प्रविष्ट हो गये । जब बड़े भाई ने मुनिजी को अपने घर में प्रविष्ट होते देखा तो उनका रोम-रोम हर्ष से विकसित हो उठा। उनका मन प्रसन्नता से नाच उठा। वे अपने आसन से उठे और संतों के सामने आ पहुँचे । उन्हें भक्तिपूर्वक वन्दन किया। मुनिजी के चरण भोजनशाला की ओर बढ़े। मुनिजी ने निर्दोष आहार ग्रहण किया, उस समय रसोई घर में केसर ही केसर बिखर गई। इस दृश्य को देखकर उनके मन में जैन धर्म एवं जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई और सारा परिवार जैन बन गया। उन दिनों श्री मांगीलालजी किशनगढ़ रहते थे। जब वे अपने बड़े भाई से मिलने इन्दौर गये और वहां जाकर यह सुना कि इन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लिया है, उन्हें आवेश आ गया और वे अपने बड़े भाई को खरी-खोटी सुनाने लगे। परन्तु बड़े भाई शान्त स्वभाव के थे। उन्होंने उन्हें शान्त करने का प्रयत्न किया। उन्हें जैनधर्म और जैन-मुनियों की विशेषता का परिचय दिया । परन्तु इससे उन्हें संतोष नहीं हुआ। वे स्वयं चमत्कार देखना चाहते थे । अतः सन्तों के सम्पर्क में आते रहे और नवकार मन्त्र की साधना करते रहे। उनके जीवन में यह एक विशेषता थी कि वे श्रद्धा के पक्के थे। उन्हें कोई भी व्यक्ति अपने पथ से. ध्येय से विचलित नहीं कर सकता था। वे जब साधना में संलग्न होते तब और सब कुछ भूल जाते थे । यहाँ तक कि उन्हें अपने शरीर की भी चिन्ता नहीं रहती थी। एक दिन उन्होंने अपने रुई के गोदाम में आग लगा दी और स्वयं वहीं ध्यान में मस्त हो गये। चारों ओर हल्ला मच गया। परन्तु वे विचलित नहीं हुए। जब लोग वहाँ पहुँचे तो देखा कि आग उनके शरीर को छू ही नहीं पाई। उनके निकट की पांच-पाँच गज तक की रुई सुरक्षित थी। इस घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। अब वे जैन धर्म पर पूरा विश्वास रखने लगे। श्रद्धा में दृढ़ता आ गई। आप श्रद्धानिष्ठ एवं साहसी व्यक्ति थे । घोर संकट के समय भी घबराते नहीं थे। एक बार आप किसी कार्यवश ऊँट पर जा रहे थे। जंगल में चलते-चलते ऊँट विक्षिप्त हो गया और आपके प्राण संकट में पड़ गये । इस समय भी आप घबराये नहीं। आपने साहस के साथ एक वृक्ष की टहनी को पकड़ा और उस पर चढ़ गये। ऊँट भी उस वृक्ष के चारों ओर चक्कर काटता रहा। परन्तु उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सका। उन्हें निरन्तर छ: दिन तक वृक्ष पर ही रहना पड़ा क्योंकि भयानक जंगल होने के कारण उस रास्ते से लोगों का आवागमन कम था। फिर भी आपने नवकार मन्त्र का स्मरण किया और साहसपूर्वक वृक्ष से नीचे उतरे और Jain Education International For Private & Personal Use Only w ww.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy