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________________ द्वितीय खण्ड / १८ लगने लगे। उन्हें श्मशानभूमि पर ले जाकर दाहसंस्कार करने वाले मिलने कठिन हो रहे थे। चारों तरफ त्राहि-त्राहि की करुण पुकार से हृदय विदीर्ण होने लगा। आपके परिवार के सदस्य भी महामारी की चपेट में आ गये। आठ दिन में तेईस सदस्य कालकवलित हो गए। चारों तरफ कुहराम मच रहा था । ऐसे विकट एवं दुखद समय में भी आपके धैर्य का बाँध नहीं टूटा। आप दिन रात जनसेवा में लगे रहे। लोगों के लिये दवा की व्यवस्था करना और जिस परिवार में मृतव्यक्ति को कोई कंधा देने वाला नहीं रहता उस लाश को उठा श्मशान में जाकर दाहसंस्कार करना, इस तरह आपने हृदय से बीमारों की सेवा की और साहस के साथ महामारी का सामना किया। प्लेग के कारण बहुत से लोग मर गये और बहुत से लोग अपने जीवन को बचाने के लिये गाँव छोडकर जंगलों में चले गये और वहीं झोपडियाँ बनाकर रहने लगे। परन्तु परिवार में सदस्यों की कमी हो जाने तथा बीमारी के कारण शक्ति क्षीण हो जाने से उनमें खेती करने का सामर्थ्य कम रह गया और अर्थाभाव भी उनके सामने मुंह फाड़े खड़ा था। अन्न की समस्या विकट हो रही थी। लोग वृक्षों की छालें पीस कर इसकी रोटियाँ बनाकर खाते या झाड़ियों के बेर खाकर संतोष करते । अन्त में विवश होकर लोग राजा के पास पहुंचे और उनसे सहायता मांगी। उस समय मांगीलालजी राजदरबार में कामदार के पद पर काम कर रहे थे। उन्होंने जनता का साथ दिया और राजा से अन्न-संकट दूर करने की प्रार्थना की। किन्तु जनता की प्रार्थना राजा के कानकुहरों से टकराकर अनन्त आकाश में विलीन हो गयी । दुर्भाग्य से वह राजा के हृदय तक नहीं पहुँच पायी। उस करुण दृश्य को देखकर भी राजा का वज्रहृदय नहीं पसीजा और स्पष्ट शब्दों में सहायता देने से इन्कार कर दिया। जनमन भय से काँप उठा। लोगों की आँखों में अविरल अश्रधारा बहने लगी। इस समय आप शांत नहीं रह सके । आवेश में उठ खड़े हए और राजा से दो हाथ करने को तैयार हो गये। इस समय जनता का सहयोग उन्हें प्राप्त था । परिणाम यह हुआ कि राजा को सिंहासन से हटा दिया गया और उसके पुत्र को राजगद्दी पर बैठा दिया। परन्तु उन्हें इतने मात्र से संतोष नहीं हुआ । वे स्वयं भी कुछ करना चाहते थे। अतः वहाँ से घर पहुँचते ही उन्होंने अपनी जमीन और जेवर बेचकर जनता के अन्न-संकट को दूर करने का प्रयत्न किया। उनकी सेवानिष्ठा एवं सत्प्रयत्नों के फलस्वरूप जनता की स्थिति में सुधार हुआ। लोग अपना कार्य एवं जीवननिर्वाह करने में समर्थ हो गए और महामारी भी समाप्त हो गयी। चारों ओर शान्ति की सरिता प्रवहमान होने लगी। परन्तु राजा के दुर्व्यवहार से आपके मन में राजदरबार के प्रति घृणा हो गयी। अत: आपने इस राज्य में काम नहीं करने की प्रतिज्ञा करली। जीवन का नया मोड़ आपके ज्येष्ठ भ्राता उन दिनों इन्दौर में रहते थे। सरकारी कार्यकर्ता होने के कारण सारा परिवार सनातन वैदिक धर्म में विश्वास रखता था । जैनधर्म से Jain Education Unternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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