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________________ • 37 ला च न . तृतीय खण्ड (२) मानव को मानवता जगानेवाला साहित्य अभी हमने प्रात्मा को संसार से मुक्त करने वाले प्राध्यात्मिक साहित्य के विषय में विचार किया कि ऐसा साहित्य अथवा ऐसी पुस्तकें सर्वश्रेष्ठ होती हैं। अब हमें दूसरे प्रकार की उत्तम पुस्तकों के विषय में भी चुनाव करना आवश्यक है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, उसे परिवार, समाज एवं देश में सभी अन्य व्यक्तियों के बीच रहना होता है तथा समाज एवं राष्ट्र की उन्नति के साथ-साथ सम्पूर्ण मनुष्यों के साथ स्नेह, सद्भावना, सेवा, कर्तव्यनिष्ठा आदि सद्गुणों को स्वयं में विकसित करना तथा औरों में भी उनका विकास हो यह प्रयास करना होता है। इसलिये ऐसी पुस्तकों का बुद्धिमानी से चुनाव किया जाना चाहिये जिनमें मानवता का अजस्र स्रोत वहता हो । ___ले 45 4.55 ला6ि ऐसी पुस्तकें चाहे किसी भी भाषा में छपी हुई हों और चाहे किसी के द्वारा लिखी हुई हों, अगर वे मानवता की जगाती हैं तो उन्हें पढ़ने में लेशमात्र भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। अनेक व्यक्ति यह सोचते हैं, अपने धर्म, अपने पंथ या अपनी साम्प्रदायिक पुस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकें पढ़ना नास्तिकता या मिथ्यात्व है। ऐसे व्यक्ति महान् भ्रम में रहते हैं। मिथ्यात्व बढ़ाने वाली पुस्तकें वे होती हैं, जिन्हें पढ़ने से मन में वैर-भाव, कषाय या हिंसा की जागति हो। इसके विपरीत मानव जीवन को उन्नत बनाने वाला साहित्य मिथ्यात्व की श्रेणी में नहीं आता । शर्त यही है कि पढ़ने वाले की दृष्टि सम्यक-समीचीन हो। शास्त्र कहता है कि सम्यग्दृष्टि के लिये तो मिथ्याश्रुत भी सम्यक्श्रुत के रूप में परिणत हो जाता है। कोई भी धर्मग्रन्थ अथवा पुस्तक में यह नहीं लिखा होता कि मनुष्य हिंसा करे, झूठ बोले, चोरी करे अथवा अन्य किसी प्रकार का पाप-कर्म करते हुए जीवनयापन करे । एक मुक्तक में भी यही कहा गया है पंथ के झगड़ों में मत उलझो, यह तो केवल राहदारी है, धर्म को धारण करो मित्रो ! धर्म कल्याणकारी है । धर्म और पंथ के भेद को, समझ लेना जरूरी है, पंथ तो दूकानदारी है, और धर्म ईमानदारी है। मुक्तक में सत्य कहा गया है। आज के समय के अनेकों व्यक्तियों ने बाह्य क्रियाकांडों को भगवान् के नाम पर भेंट पूजा तथा भंडारा आदि भरने के लिये दुकानदारी के समान आय का स्रोत बना लिया है, किन्तु हमें उनकी ओर न देखते हुए धर्म के सही और भीतरी रूप को समझकर उसका आदर करना चाहिये। साथ ही यह कभी नहीं भूलना चाहिये कि 34 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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