SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्साहित्य का अनुशीलन मूल धर्म एक ही है जो विभिन्न नामों से हो सही, पर आत्मा को उन्नत बनाते हुए मोक्ष की ओर अग्रसर होने में सहायता करता है। किन्तु इस बात को बिरले पुरुष ही समझ पाते है और वे सहज भाव से कहते हैं दुनिया भरम भूल बौराई। आतम राम सकल घट भीतर, जाकी सुध ना पाई। बकता ह ह कथा सुनावे, स्रोता सुनि घर आवे, ज्ञान-ध्यान की समझ न कोई, कह सुन जनम गंवावै। वस्तुतः धर्म आन्तरिक है तथा धर्मान्धता बाह्य । इसीलिये धर्म को अपने विवेक एवं ज्ञान की कसौटी पर कसते हुए उसके अनुसार चलना प्रत्येक मानव के लिये आवश्यक है। कृष्ण ने 'गीता' में मानवमात्र को संबोधित करते हए कहा है "विमूढा नानुपश्यन्ति, पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः।" अर्थात- मूर्ख और अज्ञानी ईश्वर को नहीं देख सकते। सिर्फ वही देख सकते हैं, जिनके ज्ञान-रूपी नेत्र खुले हुए हैं । दूसरे शब्दों में, भगवान् ज्ञान-नेत्र से दिखाई देते हैं चर्मचक्षुत्रों से नहीं। कहने का अभिप्राय यही है कि जो व्यक्ति अपनी बुद्धि, विवेक एवं ज्ञान के द्वारा प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखता है वही पंथ और सम्प्रदाय आदि के झगड़ों से मुक्त होकर मानवधर्म को सच्चा धर्म मानने लगता है और प्रत्येक प्रात्मा में ईश्वरीय रूप को देखता है । बंगाल के सुप्रसिद्ध समाजसुधारक देवेन्द्रनाथ ठाकूर अपने प्रारम्भिक जीवन में अपने धर्म एवं सम्प्रदाय को उत्कृष्ट मानते हुए अन्य सभी धर्मों को अत्यन्त तिरस्कार व घणा से देखते थे। किन्तु कुछ समय पश्चात् संयोगवश एक बार ब्रह्मसमाजी उपदेशक प्रतापचन्द्र मज़मदार उनके यहाँ पहुँच गए और उन्होंने ठाकूर के यहाँ विभिन्न धर्मों की पुस्तक देखीं तो आश्चर्य सहित पूछ बैठे "देवेन्द्रनाथ जी ! आप अपने धर्म का अत्यन्त कट्टरतापूर्वक पालन करते थे पर आज ये अनेक धर्मों की पुस्तके आपके यहाँ कैसे ?" देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने उत्तर दिया-"भाई, इन्सान जब तक जमीन पर चलता है, उसे पृथ्वी कहीं ऊँची और कहीं नीची दिखाई पड़ती है, किन्तु कुछ ऊपर पहुँच जाने के बाद उसे सम्पूर्ण धरातल समान लगने लगता है। मेरे साथ भी यही हुआ है, मैंने जब पक्षपात रहित होकर सभी धर्म-ग्रन्थों का अवलोकन किया तो मुझे उन सब में ही धर्म, जो मानव-धर्म है, Em.. समाहिकामे समणे तबस्सी जो श्रमण समाधि की कामना करता है,वही तपस्वीर मग समाधि का काम 35 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy