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दिखाई दिया और मुझमें सभी सम्प्रदायों की धर्म-पुस्तकों से मानवोचित गुणों को ग्रहण करने की वृत्ति जाग उठी ।"
वास्तव में ही जो पुस्तकें हमारी जिज्ञासानों को तृप्त नहीं करतीं, हमारी ज्ञानपिपासा को नहीं बुझातीं, हमें सत्कार्यों की प्रेरणा नहीं देतीं और हमारे विचारों को व्यापक, सहिष्णु, उदार, समत्वपूर्ण तथा जागरूक नहीं करतीं वे निम्न कोटि में प्रा जाती हैं और इसके विपरीत अच्छी पुस्तकें मानव के मस्तिष्क को पौष्टिक खुराक के रूप में अनेक ऐसे सद्गुण प्रदान करती हैं जो मानव को महामानव, दूसरे शब्दों में महात्मा बना देती हैं। महात्मा ही आत्मा और परमात्मा के मध्य की स्थिति है। कोई भी श्रात्मा महात्मा बने बिना परमात्मा नहीं बन सवती महात्मा अथवा महामानव की पहचान इसी से होती है कि वह सदा पर दुःख कातर रहता है, स्वयं कष्ट उठाकर भी औरों को सुखी करने में अपूर्व सुख का अनुभव करता है ।
दुर्गति में भी सुखी
एक बार रामानुज के गुरु ने उन्हें एक मंत्र देते हुए कहा - " वत्स ! इस मंत्र के रहस्य को कभी किसी और को मत बताना । "
तृतीय खण्ड
रामानुज बड़ी उदार प्रकृति के स्वामी थे। उनके अनेक भक्त सदा उनका उपदेश सुनते थे तथा उनकी संगति से लाभ लिया करते थे। रामानुज ने उनके अधिकाधिक कल्याण के लिये अपने गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र का रहस्य बताते हुए उन्हें मंत्र दीक्षा दे दी। किन्तु जब उनके गुरु को यह मालूम हुआ तो वे रामानुज पर बहुत बिगड़े तथा उन्हें तिरस्कृत करते हुए बोले
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" तुमने मेरी आज्ञा का पालन न करते हुए औरों को भी मंत्र का रहस्य बता दिया, अत: तुम्हें इसका परिणाम दुर्गति के रूप में भुगतना पड़ेगा ।"
यह सुनकर रामानुज का हृदय दुःख से भर गया, चेहरा फ़क्क होकर रह गया । पर साहस करके बड़ी विनम्रतापूर्वक उन्होंने अपने गुरु से पूछा:
"गुरुदेव ! मुझसे बड़ी भूल हो गई और भारी अनर्थ हुआ । पर कृपया यह बताइये कि मैंने जिन-जिनको मंत्र दीक्षा दी है, क्या वे सब भी दुर्गति को प्राप्त होंगे ?"
गुरु ने उत्तर दिया- "अगर तुम्हारे भक्तों ने पूर्ण श्रद्धा पूर्वक मंत्र ग्रहण किया है तो उन्हें सद्गति प्राप्त होगी ।"
रामानुज यह सुनकर हर्ष-विभोर हो गए और अपने गुरु के चरण-स्पर्श करते हुए प्रतीव प्रसन्नतापूर्वक बोले
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