________________
सम्पूर्ण संस्कृतियों की सिरमौर - भारतीय संस्कृति
जाती है तथा प्राहार-विहार पर नियंत्रण होता है । संक्षेप में अर्थ और काम के स्वैराचारों पर नियंत्रण रखने वाला धर्म ही है इसीलिये कहा गया है:
---
धम्म त्यो कामो, भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता । जिणवयणं उत्तिन्ना, असवत्ता होंति नायव्वा ॥
दशर्वकालिक सूत्र धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई परस्पर विरोधी मानते हों, किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने के कारण परस्पर प्रसपत्न यानी श्रविरोधी हैं ।
वस्तुत: उन्नत मन और बुद्धि के भौतिक विकास सामान्य भौतिक विकास से कहीं अधिक आकर्षक, उद्बोधक और उपकारक होते हैं । हमारी संस्कृति में मानव जाति के उत्कर्ष की भावना बहुत ऊँची है। मनुष्य का आध्यात्मिक विकास एवं तदनुरूप भौतिक उत्कर्ष का प्रयास और इन दोनों का योग हमारी भारतीय संस्कृति में ही देखने को मिलता है ।
संस्कृति और सभ्यता एक नहीं हैं
संस्कृति के विषय में अधिक जानने से पहले हमें यह जान लेना उचित है कि संस्कृति और सभ्यता में कितना अन्तर है ? क्या सभ्यता और संस्कृति एक ही हैं, और नहीं तो इनमें से प्रत्येक का अर्थ क्या है तथा इन दोनों में क्या संबंध है ? इसका ठीक-ठीक विचार करना आसान नहीं है क्योंकि कुछ लेखकों ने जो अर्थ सभ्यता का लिया है, दूसरों वही अर्थ संस्कृति का समझा है । अनेक विद्वानों ने दोनों शब्दों का एक ही अर्थ में प्रयोग किया है, इतनी ही नहीं कई कोष निर्माताओं ने तो एक को दूसरे का पर्याय या समानार्थवाची बताया । किन्तु इन दोनों में बड़ा भारी अंतर है, जिसे समझना आवश्यक है ।
सभ्यता शब्द का अर्थ
'सभ्यता' शब्द 'सभ्य' से बना है; और सभ्य का एक अर्थ सभासद् या सदस्य है । सदस्यता किसी सभा, समूह अथवा समाज की होती है । इस प्रकार सभ्यता एक सामाजिक गुण है तथा व्यक्ति के समाज में रहने के कारण ही सभ्यता का प्रादुर्भाव हुआ है । सामान्यतया हम किसी व्यक्ति की सभ्यता का अंदाजा इस बात से लगाते हैं कि समाज में उसका उठना-बैठना, वेष-भूषा, बातचीत का तरीका और व्यवहार कैसा है ? जो साफ़-सुथरे वस्त्र पहने हो, शरीर तथा हाथ-मुँह जिसके मैल रहित हों, बाल व्यवस्थित और सँवारे हुए हों तथा उठने-बैठने, खाने-पीने और बातचीत में जिसके शिष्टाचार की झलक रहती हो उसे हम सभ्य कहते हैं, किन्तु ध्यान रहे कि इसमें हम उसकी बाहरी बातों की ओर ध्यान देते हैं, प्रान्तरिक गुणों की ओर नहीं । वर्तमान समय में तो ऐसे व्यक्ति अपने आपको सभ्यता की सर्वोच्च चोटी पर
समाहिकामे समणे तवस्सी
जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है।
Jain Education International
71
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org