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तृतीय खण्ड
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होता है। स्पष्ट है कि परमात्मा का राज्य मानव के अन्दर ही है किन्तु उत्कृष्ट संस्कार ग्रहण करने पर ही वह उसमें प्रविष्ट हो सकता है अन्यथा नहीं। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि संस्कार का अर्थ आत्मा को शुद्ध करना, चमकाना तथा उसके भीतरी रूप को प्रकाशित करना है। शरीर का मैल जल से दूर हो सकता है, वस्त्रों का साबुन से और बरतनों का जंग खटाई मे दूर किया जाता है, उसी प्रकार जिन संस्कारों के द्वारा आत्मा का मैल दूर हो उसका नाम 'संस्कृति' है।
संस्कृति का माहात्म्य
जैसा कि अभी मैंने बताया है, संस्कृति का सम्बन्ध मन और आत्मा से है अर्थात् यह अान्तरिक है। इसका मुख्य लक्ष्य आत्मा पर प्रभाव डालना है। संस्कृति व्यक्ति के आन्तरिक गुणों का समूह होता है। यह ऐसी प्रेरक शक्ति है, जिसकी प्रेरणा से वह विविध सत्कार्य करता है तथा सद्भावना एवं सच्चरित्रता के द्वारा आत्मा को निर्मल बनाता हुआ उसे उन्नत स्थिति की ओर ले जाता है। संस्कृति हमारे सामाजिक व्यवहारों को उत्तम बनाती है, साहित्य और भाषा को मानवोचित गुणों से अलंकृत करती है तथा बताती है कि हम अपनी सूक्ष्म मनोवृत्तियों को कितना विकसित कर सके हैं। संस्कृति सम्यक चेष्टाओं का आधार है और सम्यक चेष्टाएँ ही आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बनती हैं। इसीलिये मनुष्य के लौकिक और पारलौकिक सर्वाभ्युदय के अनुकूल आचार-विचार ही संस्कृति कहलाते हैं। सुसंस्कृत व्यक्ति आध्यात्मिक प्रादों से कभी च्युत नहीं होता तथा लौकिक स्वार्थ के घेरे से निकलकर पारलौकिक जीवन के लिये भी सम्यक प्रयत्न करने को कटिबद्ध रहता है।
भारतीय संस्कृति में मनुष्य का एकमात्र ध्येय आत्म-साक्षात्कार अथवा भगवत्प्राप्ति होता है। मानव जीवन के उत्कर्ष की यही पराकाष्ठा है। जीवन की चरितार्थता में चार पुरुषार्थ माने गए हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । मनुष्य का धर्म से परिचालित होने की स्थिति में पाना एक संस्कार है। यह संस्कार माता-पिता के आचरण, गुरु के द्वारा प्राप्त शिक्षा, उपदेश तथा सत्संग आदि से घटित होता है तथा विवेक-बुद्धि को जागृत करता है। सांसारिक जीवन काममय है, उसके लिये अर्थ का प्रयोजन होता है अत: भारतीय संस्कृति में अर्थ और काम भी पुरुषार्थ माने जाते हैं। किन्तु प्रथम पुरुषार्थ धर्म है और अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष अथवा आत्म-साक्षात्कार । अतः अर्थ और काम कर्म और मोक्ष से बंधे रहते हैं। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय बात है कि धर्म से नियंत्रित अर्थ और काम भी पवित्र रहते हैं । यथा-धर्म के अनुसार चलने पर चोरी और चोरबाजारी नहीं की जा सकती, रिश्वत नहीं ली जा सकती, अन्याय से किसी का धन नहीं छीना जा सकता तथा निर्धन को भूखों-मारकर अपने आमोद-प्रमोद के साधन नहीं जुटाये जा सकते। धर्म से विषयभोगों की मर्यादा बँध
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