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________________ जैनदर्शन में तत्वचिन्तन / १९७ उत्पन्न ही नहीं होती। जो द्रव्य है, वह सत् है और तत्व है। सत्तासामान्य की दृष्टि से जड़ और चेतन, एक और अनेक, सामान्य और विशेष, गुण और पर्याय सब एक है । यह दृष्टिकोण संग्रहनय की दृष्टि से सत्य है । संग्रह -नय सर्वत्र श्रभेद देखता है । भेद की उपेक्षा करके प्रभेद का जो ग्रहण है वह संग्रह -नय का कार्य है । प्रभेदग्राही संग्रह नय भेद का निषेध नहीं करता श्रपितु भेद को अपने क्षेत्र से बाहर समझता है । इस नय का अन्तिम विषय सत्ता सामान्य है । प्रत्येक द्रव्य सत् है । सत्ता सामान्य का ग्रहण एकता का अन्तिम सोपान है, जहाँ सारे भेद भेदरूप से सत् होते हुए भी प्रभेद रूप से प्रतिभासिस होते हैं । सत्ता भेदों को नष्ट नहीं करती, अपितु उनमें एकत्व और सद्भाव स्थापित करती है। यदि हम द्वैतदृष्टि से देखें तो द्रव्य को दो रूपों में देख सकते हैं। ये दो रूप है—जीव और जीव । चैतन्य-धर्म वाला जीव है और उससे विपरीत अजीव है । इस प्रकार सारा लोक दो भागों में विभक्त हो जाता है । चैतन्य लक्षण वाले जितने भी द्रव्यविशेष हैं, वे सब जीव विभाग के अन्तर्गत म्रा जाते हैं जिनमें चैतन्य नहीं है, इस प्रकार के जितने भी द्रव्यविशेष हैं, उन सब का समावेश प्रजीव विभाग के अन्तर्गत हो जाता है। 1 जीव और जीव के अन्य भेद करने पर द्रव्य के छह भेद भी होते हैं । जीव द्रव्य रूपी है । जीव द्रव्य के दो भेद किये गये हैं-रूपी और अरूपी । रूपी द्रव्य को पुद्गल कहा गया । अरूपी के पुनः चार भेद हुए - धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, श्रद्धासमयकाल । इस प्रकार द्रव्य के कुल ६ भेद हो जाते हैं—पुद्गल, धर्म, अधर्म, श्राकाश और श्रद्धासमय । इन छह द्रव्यों में से प्रथम पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं और छठा अनस्तिकाय है । अस्ति का अर्थ है प्रदेशों का समूह [प्रकाश] घेरता अनेक प्रदेश जिस "अस्ति" और " काय" इन दोनों शब्दों से अस्तिकाय बनता है। प्रदेश होना और काय का अर्थ है अनेक प्रदेशों का समूह जहाँ अनेक होता है वह प्रस्तिकाय कहा जाता है। पुद्गल का एक अणु जितना स्थान है उसे प्रदेश कहते हैं। यह एक प्रदेश का परिमाण है । इस प्रकार के द्रव्य में पाए जाते हैं, वह द्रव्य अस्तिकाय कहा जाता है। इस नाप से पुद्गल के अतिरिक्त अन्य पांचों द्रव्य भी नापे जा सकते हैं। यद्यपि जीवादिद्रव्य रुपी है, किन्तु उनकी स्थिति प्रकाश में है और प्राकाश स्व-प्रतिष्ठित है प्रतः उनका परिमाण समझाने के लिए नापा जा सकता है। पुद्गलद्रव्य को छोड़कर शेष द्रव्यों का इन्द्रियों से ग्रहण नहीं हो सकता, किन्तु बुद्धि से उनका परिमाण नापा एवं समझा जा सकता है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव के अनेक प्रदेश होते हैं । अतः ये पांच द्रव्य प्रस्तिकाय कहे जाते हैं । इन प्रदेशों को अवयव भी कह सकते हैं। अनेक अवयव वाले द्रव्य प्रस्तिकाय है। श्रद्धासमय अनेक प्रदेशों वाला एक अखण्ड द्रव्य नहीं है। उसके स्वतंत्र अनेक प्रदेश हैं। प्रत्येक प्रदेश स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करता है । उनमें एक अवयवी की कल्पना नहीं की गई, अपितु स्वतंत्र रूप से सारे कालप्रदेशों को भिन्न-भिन्न द्रव्य माना गया है। इस प्रकार यह कालद्रव्य एक द्रव्य न होकर अनेक द्रव्य हैं। लक्षण की समानता से सबको "काल" ऐसा एक नाम दे दिया गया। धर्म आदि द्रव्यों के समान काल एक द्रव्य नहीं है । इसीलिए काल को अनस्तिकाय कहा गया है । पुद्गल जिसे सामान्यतया जड़ या भौतिक कहा जाता है, वही जैनदर्शन में व्यवहृत होता है। पुद्गल शब्द में दो पद है- "पुद्" और " गल" । पुद् का Jain Education International For Private & Personal Use Only पुद्गल शब्द से अर्थ होता है धम्मो दीवो संसार समुद्र मैं धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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