SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्चनार्चन /१३ भगवान महावीर की समसामयिक नारी उपासिकानों में अनेक ऐसी थीं, जिनका जीवन धार्मिक, नैतिक एवं सामाजिक दृष्टि से बड़ा आदर्श था। उनमें से केवल दो का यहां उल्लेख किया जा रहा है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र के बारहवें शतक के द्वितीय उद्देशक में हम एक नारी पात्र के संपर्क में आते हैं। वह है जयन्ती, जो कोशाम्बी के राजा सहस्रानीक की पुत्री, शतानीक की बहिन एवं उदयन की बुना थी । वह बड़ी धर्मनिष्ठ थी। भगवान् महावीर के पथानुगामी श्रमण-श्रमणियों को उपयुक्त, समीचीन आवास देने वालों में उसका प्रथम स्थान था। जयन्ती की सबसे बड़ी विशेषता थी तत्त्वाभिरुचि, तत्त्वज्ञान अधिगत करने का तीव्र उत्साह, प्रयत्न । व्याख्याप्रज्ञप्ति में उल्लेख है, पादविहार करते-करते भगवान् महावीर कोशाम्बी पधारे । लोग दर्शन हेतु उमड़ पड़े । श्रमणोपासिका जयन्ती ने जब प्रभु महावीर के आगमन का समाचार सुना, बड़ी हर्षित हुई। सपरिवार भगवान् के दर्शन किये, पर्युपासना की। भगवान् की धर्मदेशना सुनी, उसे अवधृत किया, बड़ी परितुष्ट हुई। जिज्ञासावश उसने फिर भगवान् से कुछ प्रश्न किये, जो बड़े मार्मिक हैं। प्रभु महावीर ने उनका समाधान दिया। जयन्ती बड़ी प्रसन्न हुई। उसके निमित्त से प्राप्त समाधान अन्यान्य जिज्ञासु पुरुषों एवं नारियों के लिए भी बड़े श्रेयस्कर सिद्ध हुए। जयन्ती के प्रश्न भवसिद्धिक जीवों की स्वाभाविकता, पारिणामिकता, लोक के शून्य होने की आशंका, जीवों की सुप्तता, जागरितता, सबलता, दुर्बलता, दक्षता, अमलता, इन्द्रियवशातता, बन्धादि दुष्परिणाम जैसे विषयों से सम्बद्ध थे। इन गहन-गम्भीर विषयों को देखते प्रतीत होता है, जयन्ती को बड़ा गहरा तात्त्विक ज्ञान था, जिसे वह और परिमार्जित, परिष्कृत करना चाहती थी। जयन्ती के प्रति हमें प्राभारी होना चाहिए, व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में वह तात्त्विक प्रसंग हमें आज ज्यों का त्यों प्राप्त है, जिससे न जाने कितने जिज्ञासु लाभान्वित हुए हैं, होते हैं होते रहेंगे । जयन्ती केवल तत्त्वज्ञानिनी ही नहीं थी, उसने प्राप्त तत्त्वज्ञान को कर्म में परिणत किया, प्रव्रज्या स्वीकार की, उदग्र साधना की, सर्व दुःखों का क्षय किया, अपरिसीम आध्यात्मिक प्रानन्द प्राप्त किया। वह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त पदारूढ हुई। स्थानांगसूत्र स्थान नौ, उद्देशक तीन में, आवश्यक नियुक्ति गाथा १२८४ में अत्यन्त धर्मपरायणा, भगवान महावीर की अनन्य उपासिका सुलसा का इतिवृत्त है । वह राजगह-निवासिनी थी। उसके पति का नाम नाग था। वह राजा श्रेणिक की चतुरंगिनि सेना में रथ-सेना का नायक था, अत: राजगृह में नागरथिक के नाम से प्रसिद्ध था। सुलसा अपने पति के साथ सुख से रहती थी। उसका इतिवृत्त बहुत लम्बा है, संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त हो गा, उसकी रग-रग में धर्म-भावना व्याप्त थी। भगवान महावीर में उसका अडिग विश्वास था। उन द्वारा निरूपित धर्म-तत्त्व उसके लिए प्रादेय थे। धर्म ही उसके लिए सर्वस्व था, जिससे उसे कोई विचलित नहीं कर सकता था। आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy