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________________ HTNAMORO ShareCARE MAHADrafai merelyHMANDLA चतुर्थ खण्ड / ६४ यदि किसी को स्वर्ग के उच्चस्थल पर पहुँचना है तो शील सदश कोई सोपान नहीं है। निर्वाणनगर में पहँचने का शील एक सुन्दर यान है-यथा सग्गारोहणसोपानं अं जं सीलसमं कुतो। द्वारं वा पन निव्वान-नगरस्स पवेसने ॥ (विसुद्धिमग्ग परि. १) भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल इतिहास के पन्ने शील-सिक्त स्त्री-पुरुषों की कहानी कहते हैं। चाहे दमयंती हो या चन्दनबाला। ब्राह्मी हों या सुन्दरी । हनुमान हों या फिर हों सेठ सुदर्शन । सभी शील की प्रभावना से आज भी स्मरणीय हैं। शीलवान् के समक्ष देवता दास बन जाते हैं । सिद्धियाँ सहचरी बन जाती हैं । लक्ष्मी उनकी दृष्टि का अनुगमन करने लगती है। शील-पुरुष मन से जिस बात की कामना करते हैं वह उन्हें सहज सुलभ हो जाती हैं । कुरूप से कुरूप और बेडौल से बेडौल व्यक्ति भी शील के कारण पूज्य हो जाता है। सचमुच, शील में अपूर्व बल है। अनुभव की आंच में तपे हए भर्तृहरि के उद्गार शील की महत्ता कह उठते हैं, यथा-- बह्निस्तस्य जलायते, जलनिधिः कूल्यायते तत्क्षणात् । मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरंगायते ॥ व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते । यस्याङ्गऽखिल लोकवल्लभतरं शीलं समुन्मीलति ॥ अर्थात् जिसके अंग-अंग में निखिल लोक का अतिवल्लभ शील अोतप्रोत है उसके लिए अग्नि जल बन जाती है । समुद्र छोटी नदी बन जाता है । मेरुपर्वत छोटी-सी शिला बन जाता है, सिंह शीघ्र ही हिरण की तरह व्यवहार करने लगता है। सर्प फूल की माला बन जाता है। विष अमृत हो जाता है। 'शील' शब्द बड़ा व्यापक है। इसमें अनेक अर्थ समाहित हैं। बृहत् हिन्दी कोशकार, पृष्ठ १३६१, पर शील का अर्थ मन की स्थायी वृत्ति, स्वभाव और तटस्थ व्यवहार स्वीकारते हैं । संस्कृत 'शब्दार्थकौस्तुभ' पृष्ठ ८४७ में अच्छा स्वभाव, चाल-चलन और सदाचार या सदाचरण के अर्थ में 'शील' शब्द संग्रहीत है। सर्वमान्य प्रचलित अर्थ सदाचार या सच्चरित्रता है । सदाचार के गर्भ में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह वृत्ति का समावेश हो जाता है। इस दष्टि से शील में पाँचों व्रत समाहित हो जाते हैं। बौद्धधर्म में ये पंचशील के नाम से प्रसिद्ध हैं। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र' में कहा गया है-यथा--"जम्मि य प्राराहियम्मि पाराहियं वयमिणं सव्वं, सीलं तवो य विणो य संजमो य खंती, मुत्ती गुत्ती तहेव य ।" 'तत्त्वार्थसूत्र' में "व्रतशीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ।" अर्थात् ५ अणुव्रत और ७ शील (३ गुणव्रत, ४ शिक्षाव्रत) के क्रमश: पांच-पांच अतिचार होते हैं, ऐसा कहने से 'शील' शब्द की व्यापकता मुखर होती है । इस प्रकार शील का अर्थ ध्वनित होता है-जोवन में मर्यादाओं में रहना। इन्द्रियों और मन की सुन्दर प्रादर्ते या सुस्वभाव अथवा सद्व्यवहार । जैनदर्शन में 'शीलं ब्रह्मचर्यम्' अर्थात् 'शील' को ही ब्रह्मचर्य कहा गया है । ब्रह्मचर्य में सच्चरित्रता के लिए आवश्यक गुणों का समावेश हो जाता है। जैसे पर्वतों में मेरु पर्वत और देवों में इन्द्रदेव सबसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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