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________________ 'शील' जीवन की सुन्दर उपासना है C श्रीमती अलका प्रचण्डिया 'दीति' (एम. ए. (संस्कृत), एम. ए. (हिन्दी), रिसर्चस्कॉलर] 'शोल' मानवजीवन का अमूल्य आभूषण है। वह भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड है। चारों आश्रमों और चारों वर्गों में शील का प्राधान्य है। साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, सेवकसेविका और गहस्थ सभी के लिए शील का पालन परमावश्यक है। इसके प्राचरण से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सर्वतोमुखी विकास होता है । शील शरीर, मन और आत्मा को बलवान् बनाता है । बलहीन व्यक्ति को प्रात्मा के दर्शन नहीं होते। इसके लिए वज्रऋषभनाराच संहनन की अपेक्षा होती है और वह शील से आती है। 'शील' से जीवन में शिवत्व मुखर होता है । सुन्दरता खिलती है और जीवन सत्यमय हो जाता है। भारतीय दर्शन शरीर को प्रात्मा का मंदिर मानते हैं। यह ठीक है कि शरीररूपी मंदिर को भी सार-सम्भाल होनी चाहिए। लेकिन आत्मदेवता की पूजा के बदले आज शरीरपूजा का भाव अधिक बढ़ गया है। प्रात्मपूजा शील पालन से सम्भव है। वस्तुत: शरीर-सत्कार द्रव्यपूजा है और शील भावपूजा है। कहते हैं-ऐश्वर्य का आभूषण सौजन्य है। शौर्य का आभूषण वाणी पर संयम है। ज्ञान का आभूषण उपशम है तो श्रुत का विनय । तपस्या का आभूषण अक्रोध है तो समर्थ का क्षमा । धर्म का आभूषण निश्छलता है लेकिन इन आभूषणों का आभूषण 'शील' है । व्यक्ति, परिवार, समाज, नगर, प्रान्त, राष्ट्र और विश्व सभी तो शीलधर्म से अनुप्राणित हैं। जहाँ शील मुखर है वहाँ प्यार परस्पर में पनपता है । विश्वास टिकता है । मनोबल पैदा होता है। सुख और शांति का माहौल बन जाता है। शील के माहात्म्य में कवि-स्वर गूंज उठते हैं--- शील रतन सबसे बड़ो, सब रत्नों की खान । तीन लोक की संपदा रही शील में आन । शील जीवन का ऊर्वारोहण है। वह सहस्राक्ष है, वह देखता नहीं, स्वयं दिख जाता है । शील का सागर अतल, गहन होता है। जितना-जितना इसमें अवगाहन किया जाता है उतना-उतना आनंद बिखरता जाता है। शील की गंध के समान दूसरी गंध कहाँ होगी ? दूसरी गंध तो जिधर हवा का रुख होता है उधर ही बहती है पर शील की गंध ऐसी है जो विपरीत हवा में भी उसी तरह से बहती है जैसी प्रवाह में बहती है-यथा सीलगंधसमो गंधो कुतो नाम भविष्यति । यो समं अनुवाते च परिवाते च वायति ॥ (विसुद्धिमग्ग, परि. १) धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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