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________________ आचार्य हरिभद्र सूरि और उनका योग विज्ञान / १०९ जिस अनुष्ठान के पीछे चमत्कार-शक्ति प्राप्त करने का भाव रहता है, वह 'विष' है । ' जिस अनुष्ठान के साथ दैनिक भोगों की अभिलाषा जुड़ी रहती है, वह 'गर' है। संप्रमुग्ध मनवाले व्यक्ति द्वारा बिना किसी उपयोग के जो क्रिया की जाती है, वह 'अनुष्ठान' है । 3 पूजा, सेवा, व्रत आदि के प्रति मन में राग का भाव, जिससे प्रेरित होकर व्यक्ति सदनुष्ठान में प्रवृत्त होता है, योग का उत्तम हेतु होने से 'तद्धेतु' कहा जाता है । जिस अनुष्ठान के साथ साधक के मन में मोक्षोन्मुख श्रात्मभाव तथा भववैराग्य की अनुभूति जुड़ी रहती है और साधक यह आस्था लिए रहता है कि यह अर्हत् प्रतिपादित है, उसे 'अमृत' कहा गया है । " इन पांचों अनुष्ठानों में से प्रथम तीन “असदनुष्ठान" हैं तथा अन्तिम दो "सदनुष्ठान" हैं। योग के अधिकारी व्यक्ति को "सदनुष्ठान" ही होता है । २. योगदृष्टिसमुच्चय श्राचार्य हरिभद्र का यह दूसरा यौगिक ग्रन्थ है । यह आध्यात्मिक विकासक्रम, परिभाषा, वर्गीकरण, शैली आदि की अपेक्षा 'योगबिन्दु' से अलग दिखाई देता है । योग के तीन भेद ग्रन्थ के प्रारम्भ में योग के तीन भेद किये गये हैं- १. इच्छायोग, २. शास्त्रयोग तथा ३. सामर्थ्ययोग । धर्मसाधना में प्रवृत्त होने की इच्छा से साधक का प्रमाद के कारण जो विकल धर्मयोग है, उसे 'इच्छायोग' कहा गया है । जो धर्मयोग शास्त्र के अनुसार उसे 'शास्त्रयोग' कहते हैं । यह श्रप्रमाद के कारण अविकल-धर्मयोग होता है । जो धर्मयोग आत्मशक्ति के विशिष्ट विकास के कारण शास्त्रमर्यादा से भी ऊपर उठा हुआ हो, उसे 'सामर्थ्य योग' कहते हैं । सत् श्रद्धा से युक्त बोध को 'दृष्टि' कहा गया है - ( योगदृष्टिसमुच्चय १७ ) आठ योगदृष्टियां - सबसे पहले दृष्टि के दो भेद किए हैं- 'प्रोघदृष्टि' तथा ' योगदृष्टि' । अचरमपुद्गलावर्त-अज्ञानकाल की अवस्था को 'अघदृष्टि' कहा गया है। 'प्रोघदृष्टि' में प्रवर्तमान 'भवाभिनन्दी' का वर्णन योगबिन्दु के वर्णन जैसा ही है 15 'प्रोघदृष्टि' से ऊपर उठकर साधक 'योगदृष्टि' में प्रवेश करता है । १. "विषं लब्ध्याद्यपेक्षात इदं सच्चित्तमारणात् । " - योगबिन्दु १५६ २ . वही - १५७ “ दिव्यभोगाभिलाषेण गरमाहु र्मनीषिणः" ३. "अनाभोगवतश्चैतदननुष्ठानमुच्यते । संप्रमुग्धं मनोऽस्येति” – योगबिन्दु १५८ ४. “ एतद्रागादिकं हेतुः श्रेष्ठो योगविदो विदुः " - वही १५९ ५. "जिनोदितमिति त्वाहुर्भावसारमदः पुनः । संवेगगर्भ मत्यन्तममृतं मुनिपुङ्गवाः ॥" - वही १६० . ६. योगदृष्टिसमुच्चय २, "इहैवेच्छादियोगानां स्वरूपमभिधीयते ।" ७. वही ३-५ ८. वही १४ -- " प्रोघदृष्टिरिह ज्ञेया मिथ्यादृष्टीतराश्रया । " Jain Education International For Private & Personal Use Only आसमस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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