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________________ सम्पूर्ण संस्कृतियों की सिरमौर-भारतीय संस्कृति व्यक्ति अपनी इज्जत मानकर किसी भी प्रकार के संकट का एकतापूर्वक मुकाबला करते हैं, जबकि शहरों में सभ्य कहलाए जाने वाले व्यक्ति अपने एकमात्र पड़ोसी के दुःख-सुख में भी काम नहीं आते। महापुरुष निराले होते हैं महत्त्वपूर्ण बात यह है कि बाह्य परिग्रह और रहन-सहन की परवाह न करने वाले व्यक्ति ही अपना समय और शक्ति आत्मा को निर्मल बनाने के प्रयत्न में लगा सकते हैं। अनेक भक्त और महापुरुष, जिनके कथानकों से इतिहास भरा पड़ा है वे अकिंचन बनकर ही परमात्मा से लौ लगा पाए हैं। दूसरे शब्दों में जो परमात्मा में लौ लगा लेते हैं वे सम्पन्नता होने पर भी समस्त परिग्रह का त्याग करके अकिंचन बन जाते हैं । बाहरी चमक-दमक की परवाह न करते हुए वे अपनी आत्मा को इतनी चमकीली और तेजस्वी बना लेते हैं कि उसमें प्रात्म-दर्शन की शक्ति का अभ्युदय हो जाता है तथा वे आत्म-साक्षात्कार अथवा भगवत्प्राप्ति के अपने सर्वोच्च जीवन-लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। भक्त रैदास चमार थे फिर भी उन्होंने चमड़ा साफ़ करने वाली अपनी कठौती में 'गंगा' के दर्शन कर लिये। भक्त नामदेव जाति के छींपा (कपड़ा रंगने वाले) थे। ब्राह्मणों से तिरस्कृत होकर वे मंदिर के पीछे जाकर प्रभु-स्मरण करने लगे और उनकी अनन्य भक्ति से मंदिर का द्वार धूमकर पीछे प्रा गया और उन्हें प्रभु के दर्शन हो गए। सूरदासजी अपने आराध्य 'कृष्ण' का कीर्तन करते हुए भटकते-भटकते एक कुए में गिर गए और तब भी छः दिन तक निरंतर तन्मयता से प्रभस्मरण करते रहे । कहा जाता है कि स्वयं भगवान् कृष्ण ने उन्हें कुंए से निकाल कर नेत्र-ज्योति प्रदान की, किन्तु प्रभुदर्शन के पश्चात् उन्हें और कुछ देखना गवारा नहीं था, अतः भगवान् से वरदान स्वरूप उन्होंने पुनः अंधत्व ही माँग लिया। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि आधुनिक सभ्यता की कसौटी पर कसे जाने से तो वे सब पूर्णतया असभ्य थे, किन्तु संस्कारों की दृष्टि से सर्वोच्च शिखर पर आसीन हो चुके थे। स्पष्ट है कि सभ्य होने न होने से सुसंस्कृत बनने में कोई बाधा नहीं पड़ती। हाँ, संस्कार व्यक्ति की सभ्यता में जीवन अवश्य डाल देते हैं। सुसंस्कारी व्यक्ति उत्तम संस्कारों के द्वारा अत्यन्त शिष्ट, सज्जन, सद्भावना से युक्त और अपने जीवन-व्यवहार को प्रेम, दया, करुणा आदि गुणों से परिपूर्ण बनाकर सही मायनों में 'सभ्य' कहलाने योग्य बन सकता है। अच्छे संस्कार जो कि धर्ममय होते हैं वे व्यक्ति के रहन-सहन, बोल-चाल तथा प्राचार-विचार आदि की सभी क्रियाओं को प्रेम तथा अहिंसा रूपी धर्म से प्रोत-प्रोत करके उसे मानव से महामानव बनाकर उसकी सभ्यता में चार चाँद लगाते हैं। . समाहिकामे समणे तवस्सी ___ो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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