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तृतीय खण्ड
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" कलह
प्रतीकों को न अपनाने पर भी असभ्य कहे जा सकते थे ? उनकी महानता, ज्ञान-गरिमा एवं देश-भक्ति उनके अनुपम सुसंस्कारी होने की प्रतीक थीं।
इसी प्रकार स्वामी रामतीर्थ जब अमेरिका गए तो 'सान फ्रांसिस बंदरगाह' पर सभी यात्रियों को शीघ्रतापूर्वक सामान उतारते हए देखकर वे अपने स्थान पर शांति से बैठे रहे।
यह देखकर एक अमेरिकन ने उनसे पूछा"क्या आपके पास उतारने के लिये सामान नहीं है ?" "सामान में रखता ही नहीं।"
उस अमरीकी ने आश्चर्यवश पुनः पूछा-'पाप यात्रा के लिये जरूरी कुछ साधन तो साथ रखते ही होंगे?"
"नहीं मेरे पास कुछ भी नहीं है।" "तो क्या यहाँ आपका कोई परिचित या मित्र रहता है ? स्वामीजी ने हँसते हुए उत्तर दिया-'हाँ, एक मित्र तो आप ही हैं।"
यह सुनकर वह विदेशी, भारतीय संस्कृति की त्यागवृत्ति, सादगी, निरभिमानिता, महानता, उदारता तथा तेजस्विता को स्वामीजी के रूप में देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ और उन्हें अपना अतिथि व मित्र मानकर प्राग्रहपूर्वक अपने घर ले गया।
ऐसे उदाहरणों से हमें ज्ञात होता है कि संस्कृति सभ्यता पर निर्भर नहीं है । साधारण रहन-सहन वाले व्यक्ति सभ्यता के दिखावटी चिह्नों से दूर रह कर भी संस्कृत होते हैं, अगर उनमें उदारता, विशालता, स्नेह, परोपकार एवं सेवा की भावनाओं का जन्म और उनका विकास हो जाय। ध्यान में रखने की बात है कि सभ्यता पर गर्व करना थोथा है। यह आवश्यक नहीं कि जो जातियाँ असभ्य समझी जाती हैं, उनकी संस्कृति का स्तर भी नीचा हो। सभ्यता का दम भरने वाले ऐसा प्रचार करते हैं। किन्तु अनेक अन्वेषकों और यात्रियों ने अनुसंधान किया तो पता चला है कि असभ्य मानी जानेवाली जातियाँ कथित सभ्य लोगों की अपेक्षा अधिक सुसंस्कृत एवं ऊँची साबित हई हैं। एक ओर जहाँ स्वयं को सभ्य कहने वाले व्यक्ति ईर्ष्या, द्वष, अन्याय, अनीति, असत्य और क्रूरता के साथ एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते हुए अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वहाँ दूसरी ओर अशिक्षित, कम शिक्षित तथा असभ्य माने जाने वाले ग्रामीण और निम्न जाति के व्यक्ति निर्धन होने पर भी परम संतोष सहित थोड़ा और मोटा खाकर व पहन कर भी आपस में मिलजुलकर एक-दूसरे की सहायता करते हुए प्रेम से रहते हैं। गाँवों में एक व्यक्ति की बेटी को सभी अपनी बेटी मानते हैं तथा विवाह के समय सब घरों के लोग आकर अपनी हैसियत से अनुसार रुपया-पैसा देकर कन्यादान करते हैं। प्रत्येक
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