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वस्तुतः साधु में ऐसी संयमी और दृढ़ ग्रात्म शक्ति होनी चाहिये। एक पाश्चात्य विद्वान् का कथन है—
"Most powerful is who has himself in his own power."
- जो आत्मसंयमी है, वही सर्वाधिक शक्तिमान् है।
स्पष्ट है कि जो साधक या संत एक स्थान का मोह भी नहीं छोड़ सकता वह रागद्वेषादि कषाय एवं आसक्ति का त्याग कैसे कर सकता है ? और इनके विद्यमान रहने पर वह संत कहलाने योग्य कैसे हो सकता है ?
(२) जन-कल्याण की क्षमता प्राप्ति
तृतीय खण्ड
संत को तरण तारण जहाज की उपमा दी गई है । यह तभी सार्थक हो सकती हैं, जबकि संत यथाशक्ति अधिक से अधिक ऐसे स्थानों पर विचरण करे जहाँ के भोले मानव धर्म के मर्म को समझ सकें।
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जैन - कुल में जन्म
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हमने जब काश्मीर के क्षेत्रों में भ्रमण किया तो वहाँ देखा -- वहाँ के लेने वाले व्यक्ति भी अपने इष्ट, भगवान् महावीर या पार्श्वनाथ का नाम तक नहीं जानते थे । 'अहिंसा परमो धर्मः' के ज्ञान से शून्य निःशंक मांस-मदिरा प्रादि ग्रहण करते तथा इनका व्यवसाय भी करते थे। ऐसी स्थिति में अन्य जातियों की तो बात ही क्या थी! किन्तु उन सबमें एक बड़ी विशेषता थी और वह थी सरल जिज्ञासा। वहाँ के व्यक्तियों को सत्संग कभी मिला नहीं था । श्रतः प्रत्येक स्थान पर जहाँ हम ठहरते, श्रास-पास के तथा मीलों दूर के भी सैकड़ों व्यक्ति आते और बड़ी तन्मयता से हमारी बात सुनते कम समय में जो भी मुख्यमुख्य बातें मैं उन्हें समझा पाती, उसे वे समझते और ग्रहण भी करते थे। उनके हृदय कच्चे घड़े के या कोरी स्लेट के समान मुझे लगे, जिन पर सुना हुआ तुरंत अंकित सा हो जाता था । हिंसा, झूठ, चोरी आदि को जब वे पाप समझ लेते तो प्रवचन के बाद ही समीप आकर मांस भक्षण एवं प्राणियों को मारने का त्याग कर देते थे। कई सरल व्यक्ति तो आँखों में भर कर कह उठते
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"महाराज जी ! हम बड़े पापी है, बहुत जीवों को मारा है हमने अब क्या होगा ? आप इधर पहले क्यों नहीं आए हमें समझाने ।"
उनकी बातें सुनकर मन बड़ा व्यथित होता किन्तु उनके दुःख और पश्चात्ताप को कम करने के लिये हत्यारे 'अर्जुनमाली' और डाकू 'अंगुलिमाल' जैसे व्यक्तियों के अनेक उदाहरण देकर समझाना पड़ता कि सच्चे मन से पश्चाताप और प्रायश्चित करने से पहले किये हुए पापों की निर्जरा होती है तथा भविष्य में न करने की प्रतिज्ञा कर लेने पर भी मन शुद्ध होता चला जाता है और अंत में उच्च गति प्राप्त हो सकती है।
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