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________________ संत और पंच यह सुनकर उन्हें काफी संतोष होता और जितना संभव होता ने त्याग करते । तथा अपनी प्रतिज्ञा का दृढ़ता से पालन करने की भावना व्यक्त करते । अभिप्राय यह कि साधु-संत अगर विचरण करते रहें तो छोटी-छोटी बस्तियों के लोग भी सत्संग का लाभ उठा सकते हैं तथा बातों को समझ कर अपने जीवन को सदाचारमय और निर्मल बनाकर उत्तम निर्माण कर सकते हैं। सत्संगति के अभाव में एक चित्रकार चित्रकला में बहुत कुशल था। वह प्रायः रमणीय स्थलों पर घूमता रहता धीर जैसे भी दक्य देखता उन्हें ज्यों के त्यों कागजों पर बना लेता। एक बार एक स्थान पर उसने प्रत्यन्त सुन्दर, सौम्य और सरल बालक को देखा । उसका शान्त और भोला चेहरा उसे इतना प्रिय लगा कि उसने बालक का एक सजीव सा चित्र बना लिया। उसके पीछे उसका नाम पता लिखकर अपने घर में टाँग दिया। जब भी वह उस बालक के चित्र को देखता, उसका हृदय प्रफुल्ल हो उठता । पश्चात् एकाएक एक चित्र के समीप एक दिन चित्रकार के ऐसा चित्र लगाऊँ समय व्यतीत होता गया और कुछ वर्षों के मन में इच्छा हुई कि इस सुन्दर प्रकृति वाले बालक के जो इससे बिल्कुल विरोधी भावों वाला हो। ऐसा करने से इस चित्र का महत्त्व और मूल्य अधिक बढ़ जाएगा । छोटे-छोटे गाँवों और यथाशक्ति धर्म की मूल अपना और समाज का अपनी इच्छापूर्ति के लिये वह किसी विद्रूप, दुष्ट एवं क्रोधी व्यक्ति की खोज करने लगा । किन्तु उसके अंकित करने लायक चेहरा न दिखाई देने पर वह उस शहर के जेलखाने की ओर चल दिया । जेलर से जब उसने बात की तो जेलर मुस्करा दिया तथा चित्रकार को भी मनमौजी कलाकार समझकर जेल के अन्दर भेज दिया और कह दिया- "बंधु ! तुम स्वयं अपने चित्र बनाने के लायक चेहरा खोज लो ।" चित्रकार जेल के अन्दर जाकर सबसे अधिक कुरूप और कुत्सित चेहरा ढूंढने लगा। अचानक सलाखों के पास एक युवक उसे दिखाई दिया जिसके चेहरे से बड़ी क्रूरता, नृशंसता, तथा विद्रूपता झलक रही थी। चित्रकार ने उसीका चित्र बनाना चाहा तथा उस युवक को समीप जाकर उसका नाम और पता पूछा। किन्तु जब उस युवक ने अपने बेहूदे ढंग और क्रोधी स्वर से अपना नाम-पता बताया तो चित्रकार ठगा सा खड़ा रह गया। युवक ने चित्रकार को बुत के समान खड़े देखकर कहा " बात क्या है ? क्यों घूर रहे हो मुझे ?" समाहिकामे समणे तवस्सी ओ श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है Jain Education International 51 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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