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________________ चतुर्थ खण्ड | २५८ ज्ञान-दीप तप-तेलभर, घर शोध भ्रम छोर । या विध विन निकस नहीं, बैठे पूरब चोर ॥ निर्जराभावना पंच महाव्रत संचरण, समिति पंच परकार । प्रबल पंच इन्द्री-विजय, धार निर्जरा सार । लोकभावना चौदह राजु उतंग नभ, लोक पुरुष-संठान । तामें जीव अनादि तें, भरमत हैं बिन-जान ॥ बोधिदुर्लभभावना धन कन कंचन राज सुख, सहि सुलभ कर जान । दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ॥ धर्मभावना जाचे सुर तर देय सूख, चितत चितारन । बिन जाच बिन चितये, धर्म सकल सुख दैन । इन द्वादश भावनाओं के निरन्तर अभ्यास करने से पुरुषों के हृदय में कषाय रूप अग्नि बुझ जाती है तथा परद्रव्यों के प्रति राग भाव गल जाता है और अज्ञानरूपी अन्धकार का विलय होकर ज्ञानरूप दीप का प्रकाश हो जाता है। दान धन से दिया जाता है । शील सत्त्व से पाला जाता है, तप भी कष्ट से तपा जाता है किन्तु उत्तमभावना स्वतन्त्र है । भगवान न तो काष्ठ में है, न पत्थर में है और न मिट्टी में है । भगवान् का निवास पवित्र भावना में है अतएव भगवत्प्राप्ति का मुख्य हेतु भावना है । प्रज्ञ 'नमो विष्णोय' कहता है और विज्ञ 'नमो विष्णवे' कहता है लेकिन दोनों को समान पुण्य होता है। क्योंकि विष्णुभगवान् भावना के भूखे हैं। इस प्रकार इन भावनाओं, अनुप्रेक्षाओं के द्वारा भावों की शुद्धि और शुभभावों में एकाग्रता होती है। वस्तुत: भावों की शुद्धि से आत्मशुद्धि होती है और प्रात्मशुद्धि से ध्येय की प्राप्ति सम्भव है। -मंगलकलश, ३९४, सर्वोदयनगर, आगरारोड, अलीगढ़-२०२००१ (उ०प्र०) 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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