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द्वितीय खण्ड / ८२ के ये सभी गुण महासतीजी को मानो विरासत में मिले हों. क्योंकि युवाचार्यश्री उन्हें इस दिशा में सदैव उद्बोधित करते रहते थे।
उद्बोधन दो प्रकार का होता है-एक, तपःपूत, साधनानिष्ठ, पावन जीवन से सहज रूप में प्राप्त होता है। वैसा जीवन ही अपने आप में प्रेरणा-स्वरूप होता है। दूसरे, समय-समय पर ऐसे उच्च कोटि के पुरुषों द्वारा उद्गीर्ण वाणो सान्निध्यसेवी में, उपासक में, श्रद्धालु में प्रेरणा जगाती है । ये दोनों ही उद्बोधन महासतीजी म. को युवाचार्य प्रवर से अनवरत प्राप्त रहे।
जिनके जीवन में समता तथा सौमनस्य का भाव परिव्याप्त होता है, वे किसी की अवज्ञा नहीं करते, किसी की न्यूनताएँ देख उसकी अवहेलना नहीं करते, उसे जीवन में सात्त्विकता और पवित्रता संजोने का संकेत देते हैं । गुणाधिकों के प्रति उनमें स्वभावतः समादर की भावना होती है, गुणों को देख वे प्रमुदित होते हैं। महासतीजी में यह सब है । जिनके विकास में जहाँ एक ओर उनकी अन्तःप्रेरणा कार्यशील रही, दूसरी और उनके आराध्यचरण गुरुवर्य द्वारा प्रदत्त स्फुरणा।
मानव में अनेक दुर्बलताएँ हैं। उन दुर्बलताओं में अपने वैयक्तिक सम्बन्ध, ममत्व आदि कुछ ऐसे हैं, जिनके उभर आने पर व्यक्ति सत्य पक्ष से विचलित हो जाता है, असत्य पक्ष को स्वीकार कर लेता है, उसे बल देता है किन्तु सच्चे साधक, सन्त, तितिक्षु, मुमुक्षुजन ऐसा कभी नहीं करते । निश्चय ही ऐसे व्यक्ति अभिनन्दनीय, सम्मानीय और सत्करणीय होते हैं । महासतीश्री अर्चनाजी के जीवन का यह पक्ष बहत उजागर है, उबुद्ध है । इन दुर्बलताओं से वे सर्वथा विमुक्त हैं। उनके धर्मनायक गुरुवर्य का जीवन इन विशेषताओं से बड़े सुन्दर रूप के सम्पृक्त था, जिनकी अवतारणा महासतीजी के जीवन में अक्षुण्ण रूप में हुई।
___ संघीय जीवन समष्टि-सापेक्ष होता है । विविध व्यष्टियों का सामष्टिक रूप अपने अस्तित्व-निर्वाह के लिए कुछ व्यवस्थाक्रम, विधिक्रम चाहता है। उनमें अनशासन का प्रमख स्थान है। अनुशासन के बिना क्या धार्मिक, क्या राजनैतिक, क्या सामाजिक कोई भी जीवन भली भाँति चल नहीं सकता। शास्त्रों में "अणुसासिनो ण कुप्पेजा"-अनुशासित होने पर व्यक्ति कोधित न हो
जो कहा गया है, बहुत मार्मिक है। अनुशासन संगठन का प्राण है । ज्यों ही अनुशासन की शृखला टूट जाती है, संगठन चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, ध्वस्त-विध्वस्त हो जाता है। महासती श्री अर्चनाजो श्रमण-परम्परा के जिस
आम्नाय से सम्बद्ध हैं, उसमें परम श्रद्धास्पद, अप्रतिम ओजस्वी, मनस्वी, श्रमण रत्न मुनि श्री जोरावरमलजी म. जैसे उत्कृष्ट कोटि के संत हुए हैं, जिनका अनुशासन सर्वत्र विश्रुत था । अनुशासन की वह सुन्दर शृखला परम्परानुगत रूप में महासतीजी को महान सन्त, सौम्यचेता मुनि श्री हजारीमलजी महाराज, धर्मशासन के महान् सेवी स्वामीजी श्री ब्रजलालजी महाराज, परमाराध्य युवाचार्य प्रवर निविकारचेता, परमोदारमना श्रीमधुकरमुनिजी महाराज से विशेष रूप से प्राप्त हुई। आप स्वयं अनुशासन में रहना जानती हैं और अपनी अन्तेवासिनियों को स्नेह
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