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पंचम खण्ड | २१०
अर्चनार्चन
मसीही योग की आवश्यकता
मसीहीधर्म के इतिहास को देखने से ज्ञात होता है कि मध्यकाल में संतों ने ध्यान की पद्धति को अपनाया और परमेश्मर के उस प्रेम के रहस्य को जाना । विशेषकर कैथोलिक संतों ने इस परम्परा पर अधिक ध्यान दिया ताकि मसीही भरपूरी को पा सके । मसीही योग की आवश्यकता वर्तमान में बहुत अधिक है। आवश्यकता का प्रथम कारण हमें इफिसियो की पत्री में मिलता है । वहाँ लिखा है-"मसीह के उस प्रेम को जान सको जो ज्ञान से परे है कि तुम परमेश्वर की सारी भरपूरी तक परिपूर्ण हो जाओ।" एक कारण और है जिसका वर्णन पौलुस एक अन्य स्थान पर करता है। वह लिखता है कि "तुम्हारा आत्मा और प्राण और देह प्रभु यीशुमसीह के आने तक पूरे-पूरे और निर्दोष सुरक्षित रहे।" 'मसीहधर्म' में प्रभु यीशुमसीह के द्वितीय प्रागमन के बारे में शिक्षा दी जाती है । अतः उस समय तक प्रत्येक विश्वासी को मसीही योग की आवश्यकता है। सिद्ध पुरुष कौन है ?
मत्ती रचित सुसमाचार में सिद्ध बनने के लिए कहा गया है । आखिर सिद्ध पुरुष की परिभाषा क्या है ? बाइबल सिद्ध पुरुष की परिभाषा करती है कि "जो कोई वचन में नहीं चकता वही तो सिद्ध पुरुष है और सारी देह पर भी लगाम लगा सकता है।"१० सिद्ध पुरुष का अाधार विश्वास और धीरज होता है जैसाकि कहा गया है कि "तुम्हारे विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है, पर धीरज को अपना काम करने दो कि तुम पूरे और सिद्ध हो जानो और तुम में किसी बात की घटी न हो।"" एक सिद्धपुरुष होने के लिए जिसकी अावश्यकता है उसका वर्णन पौलुस तीतुस की पत्री में करता है। वहाँ लिखा है कि "प्राचीन (अगुवा) को जितेन्द्रिय होना चाहिए।"१२ अतः सिद्धपुरुष के लिए आवश्यक है कि वह संयम और धर्म और भक्ति से जीवन बिताये । पौलुस ने कहा भी है कि "इस युग में संयम
और धर्म और भक्ति से जीवन बितायें।"१३ मत्ती रचित सुसमाचार एक और बात के लिए इशारा करता है कि सिद्धपुरुष होने के लिए कंगाल होना आवश्यक है अर्थात् हृदय में रिक्तता होना आवश्यक है। अहं भाव का लोप होना आवश्यक है। प्रासक्ति से परे होना आवश्यक है । कहा गया है कि "यदि तू सिद्ध होना चाहता है तो जा अपना माल बेचकर कंगालों को दे।"१४ मसीही योग के सम्बन्ध में कुछ विचार
भारतीय दृष्टि को ध्यान में रखकर कुछ मसीही अनुयायियों ने मसीही योग को भारतीय संदर्भ में देखने का प्रयास किया है। सर्वप्रथम हम जे० एम० डेचनेट के विचारों से अवगत होंगे, जिन्होंने क्रिश्चियन-योग नामक एक पुस्तक की रचना की है। उन्होंने मसीहीयोग में चार प्रकार के अभ्यास बताये हैं-(१) पवित्रता को प्राध्यात्मिक अभ्यास द्वारा पाना, (२) प्रार्थना का अभ्यास, (३) संगति का अभ्यास और (४) ईश्वर के सन्मुख प्रतिदिन की उपस्थिति । प्रार्थना पर उन्होंने बहुत अधिक बल दिया है और इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि "एक मसीह को प्रार्थना में अपने जीव (Self) को खोजना नहीं पड़ता या पूर्वीय विद्वानों की तरह अपने को भूलना नहीं पड़ता, परन्तु वह अपने आपको परमेश्वर के वचन के
पपम .
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