SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग और आयुर्वेद / २२५ में तो इस भौतिक शरीर का भी विनाश हो जाता है अर्थात् शरीर का त्याग करने के बाद ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । तब यह श्रात्मा समस्त शारीरिक बन्धनों से मुक्त हो जाती है । उसे पुनः पुनः जन्म-मरण धारण करने के लिये संसार में नहीं श्राना पड़ता है, यही मोक्ष है और यही इस श्रात्मा का चरम लक्ष्य है । आयुर्वेद के अनुसार योग मोक्षप्राप्ति में सहायक है । अतः मोक्षप्राप्ति के लिए प्रथम योग की सिद्धि होना अनिवार्य है । योगसिद्धि के बिना मोक्ष की प्राप्ति अथवा आत्मा की मुक्ति होना संभव नहीं है । इससे यह स्पष्ट है कि आयुर्वेद में योग को पर्याप्त महत्त्व दिया गया है और योग के सिद्धान्तों का वह पूर्णत: अनुमोदन करता है । उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि योगशास्त्र में प्रतिपादित चरमलक्ष्य को प्रायुर्वेद शास्त्र में भी उसी रूप में स्वीकृत किया गया है। योगशास्त्र सम्बन्धी अनेक सिद्धान्तों एवं व्यावहारिक बातों को आयुर्वेद में यथावत् रूप से ग्रहण कर लिया गया है । श्रतः योग और प्रायुर्वेद का प्रत्यन्त निकटतम सम्बन्ध है । जिस प्रकार योगशास्त्र में यम और नियम के द्वारा शारीरिक और मानसिक आचरण की शुद्धता पर विशेष जोर दिया गया है, उसी प्रकार श्रायुर्वेदशास्त्र में प्रतिपादित पूर्वोक्त "सतामुपासनं सम्यगसतां परिवर्जनम्" श्रादि श्राचरण के अतिरिक्त निम्न "प्राचार रसायन" भी विशेष महत्त्वपूर्ण है, जिसमें सामान्य मनुष्य को सदाचरण का अनुशीलन, सद्गुणों का ग्रहण और सत्कर्मों को करने की प्रेरणा मिलती है— सत्यवादिनमक्रोधं निवृतं मधमैथुनात् । अहिंसकमनायासं प्रशान्त प्रियवादिनम् ॥ जपशौचपरं धीरं दाननित्यं तपस्विनम् । देवगोब्राह्मणाचार्य गुरुवृद्धार्चने रतम् ॥ आनृशंस्यपरं नित्यं नित्यं कारुण्यवेदिनम् । समजागरणस्वप्नं च नित्यं क्षीरघृताशिनम् ॥ देशकालप्रमाणज्ञं युक्तिज्ञमनहं कृतम् । शस्ताचारमसंकीर्णमध्यात्मप्रवणेन्द्रियम् ॥ उपासितारं वृद्धानामास्तिकानां जितात्मनाम् । धर्मशास्त्रपरं विद्यान्नरं नित्यं रसायनम् ॥ - चरकसंहिता, चिकित्सास्थान १/४/३०-३४ सदैव क्रूरता से दूर रहने वाले, — सत्य बोलने वाले, क्रोध नहीं करने वाले, मघ सेवन और मैथुन से दूर रहने वाले, हिंसा नहीं करने वाले, श्रम नहीं करने वाले, शान्त रहने वाले, प्रिय बोलने वाले, जप और पवित्रता में तत्पर, धैर्यवान्, नित्य दान करने वाले, तपस्वी, देव, गो, ब्राह्मण, श्राचार्य, गुरु र वृद्धजनों की पूजा (सेवा) में तत्पर रहने वाले, सदैव करुणापूर्ण हृदय वाले, यथोचित समय तक जागृत रहने और यथा समय शयन करने वाले, देश, काल और प्रमाण अथवा देश और काल के प्रमाण को जानने वाले, युक्ति को जानने वाले, युक्तिपूर्वक कार्य करने वाले, अहंकार नहीं करने वाले, उत्तम या प्रशस्त प्रचारविचार वाले, संकीर्णता या विकारों से रहित, अध्यात्मविद्या में प्रवण (आध्यात्मिक विषयों Jain Education International For Private & Personal Use Only आसनस्थ तम आत्मस्थ मन तब हो सके आश्वस्त जम www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy