SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 988
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन साधना-पद्धति में ध्यान / ५५ शुक्लध्यान का चौथा प्रकार-अरिहन्त भगवान जब मुक्तिपद में प्रयाण करते हैं तब सूक्ष्म काययोग का भी निरोध करके पांच ह्रस्व स्वरों का उच्चारण करने जितने समय तक मेरु पर्वत की तरह निश्चल प्रयोग अवस्था में-शैलेशी अवस्था में रहते हैं। यही व्युच्छिन्नक्रिय नामक ध्यान का चौथा प्रकार है । इसमें सकल अर्थों की समाप्ति हो जाती है और शिव पद प्राप्त हो जाता है । ३२ आलम्बन और भावना-संयमियों को शुक्लध्यान में बढ़ने के लिए क्षमा, निर्लोभता, ऋजुता-सरलता और मृदुता-यह चार पालम्बन बतलाये गये हैं । इसी प्रकार शुक्लध्यान की विशुद्धि के लिये पाप-मात्र अपायकारक-हानिकारक है, यह देह अशुभ-अशुचिमय है, यह जीव अनन्त पूदगलपरावर्तन द्वारा संसार में भ्रमण करता है और जगत नश्वर चलायमान हैयह चार भावनाएं माननी चाहिये । 33 दुष्करता-शुक्लध्यान की अवस्था प्राप्त करने के लिये प्रात्मा की पूर्ण दृढ़ता और प्रात्मा का अपरिमित वीर्य-सामर्थ्य चाहिये और अत्यन्त दृढ़ वैराग्य भाव चाहिये। इस समय यदि वह संभव न हो तो भावी की प्राशा रख कर तब तक शुक्लध्यान की भावना भानी चाहिये, जब तक कि अपरिमित वीर्य प्रादि साधन सामग्री पूर्णरूप में प्राप्त न हो जाये । ३४ आधुनिक समय के लिये धर्मध्यान ही इष्ट, शुभ है। १७, लाला लाजपतराय मार्ग उज्जैन (म. प्र.), ४५६००९ ३२. क. कौमुदी, ५९२।२१६-२१७ ३३.. क. कौमुदी, ५९४।२१८ ३४. क. कौमुदी, ५९६।२१९ आसमस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy